नई दिल्ली: 5 राज्यों के चुनावी परिणाम को देखकर यदि ये समझा जाए कि भारतीय राजनीति में एक वक्त में अपना लोहा मनवाने वाले वामदलों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है, तो गलत नहीं होगा. जिस बंगाल को लेफ्ट का गढ़ माना जाता था, वहां वामदलों का पूरी तरह से सफाया हो गया है.


पूरी तरह बुझ गई 'लाल बत्ती'!


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एक वक्त ऐसा था कि पश्चिम बंगाल में लगातार 34 साल और सात चुनावों में लेफ्ट का एकछत्र राज था. 2011 में लाल बत्ती धधककर बुझ गई है और हरी बत्ती जल गई. उस वक्त ममता बनर्जी के हरे झंडे वाले तृणमूल ने लाल झंडे वाले सीपीएम को अपनी लहर में बहा दिया.



10 वर्षों में लेफ्ट की हालत इतनी खस्ता हो गई कि 2021 के विधानसभा चुनाव में उसे चुनावों में कुछ भी हाथ नहीं आया. एक सीट पर जीत दर्ज करने के लिए वामदल तरस गए. मतलब साफ है बंगाल में लाल बत्ती पूरी तरह से बुझ गई.


जल्द राजनीति से गायब हो जाएगी लेफ्ट?


हर जगह से लेफ्ट का सफाया हो गया है, सीपीएम एक नेशनल पार्टी से क्षेत्रीय पार्टी बनकर रह गई है. बड़ा सवाल ये है कि लेफ्ट के भविष्य का क्या होगा? ये चुनावी परिणाम लेफ्ट के लिए किसी बड़े सबक से कम नहीं है.


बंगाल में लेफ्ट का जहां पूरी तरह सफाया हो गया, तो वहीं केरल में वापसी करने के साथ एक इतिहास रच दिया गया है, लेकिन यहां गौर फरमाने वाली बात ये है कि ये जीत लेफ्ट के नाम पर नहीं हुई है, बल्कि ये जीत लेफ्ट को एक व्यक्ति के नाम पर मिली है. यूं कहे कि केरल में लेफ्ट की वापसी नहीं हुई है, बल्कि पिनराई विजयन का दोबारा स्वागत किया गया है.


पिनराई विजयन की गुलाम यानी लेफ्ट


धीरे धीरे लेफ्ट जो देश की राष्ट्रीय पार्टी में शुमार हुआ करती थी. वो न सिर्फ क्षेत्रीय पार्टी के रूप में सिमटती जा रही है, बल्कि वो पिनराई विजयन की गुलाम की तरह काम करने लगी है. पूरी लेफ्ट विजयन के ही भरोसे चल रही है. लेफ्ट का कोई नेता पिनराई के सामने कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है.



बंगाल से लेफ्ट का अस्तित्व समाप्त हो गया और उसके बड़े से बड़े नेता कुछ नहीं कर पाए. अब लेफ्ट में किसी भी नेता की विजयन के आगे थोड़ी भी नहीं चलती है. सीताराम येचुरी (Sitaram Yechury), एलामाराम करीम (Elamaram Kareem), पी आर नटराजन (P.R. Natarajan) या फिर जी रामकृष्णन (G. Ramakrishnan) ऐसा लगता है कि अब हर कोई पिनराई विजयन के इशारों पर ही काम करता है.


पिनराई के रास्ते में जो भी कांटा आता है, वो उसे साइड कर देते हैं, केरल में हुए चुनाव से इसका बड़ी छाप देखने को मिली है. वहां पार्टी ने दो बार से किसी विधायक को टिकट देने से मना कर दिया. मतलब समझिए, विजयन के आगे कोई भी बड़ा और दावेदार खड़ा न हो पाए इसके लिए ये एक बड़ा कदम था. खैर, केरल में LDF सरकार की वापसी हो गई है, लेकिन ये वापसी लेफ्ट की ताकत नहीं बल्कि पिनराई की ताकत बढ़ाती दिख रही है.


लेफ्ट नहीं.. केरल में पिनराई की हुई वापसी


40 साल पुरानी परंपरा इस बार टूट चुकी है, वो भी पिनराई विजयन के भरोसे ही ये इतिहास रचा गया है. दरअसल, कोई भी सत्‍ताधारी पार्टी पिछले चार दशकों में कभी दोबारा चुनाव जीत नहीं पाई थी, लेकिन विजयन ने इसे गलत साबित कर दिया और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) सरकार ने चमत्‍कार कर दिखाया है.


1980 से ही केरल में हुए हर विधानसभा चुनाव के नतीजों में सत्ताधारी पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ता था.


राजनीति से लेफ्ट के पतन की वजह समझिए


मतलब साफ है कि लेफ्ट का देश में कोई ध्रुव नहीं है. एकमात्र विजयन के सहारे सारा का सारा वामदल अपनी सियासत बचा रहा है. लेफ्ट के इस हाल की वजह समझने की जरूरत है. लेफ्ट के सभी नेता बरसाती मेंढ़क की तरह सिर्फ चुनाव और कुछ चुनिंदा मौकों पर बाहर आते हैं और लाल झंडा उठाकर, कुछ धरना-प्रदर्शन करके वापस गायब हो जाते हैं. 


ऐसा लगने लगा है कि लेफ्ट के नेताओं को ये समझ आ गया है कि 'अब उनसे ना हो पाएगा...' तभी तो उन्होंने अपनी सियासत को बचाए रखने के लिए कोशिश करनी भी छोड़ दी है. बड़े नेताओं से लेकर छोटे-छोटे नेताओं और कार्यकर्ताओं में कोई आग तो दूर, चिंगारी तक नहीं बची है. जिसकी वजह से वामदलों का पूरा धड़ा दिन पर दिन कमजोर और मजबूर होता जा रहा है.


जब बंगाल में लेफ्ट का हुआ करता था जलवा


बंगाल और लेफ्ट का काफी गहरा और पुराना नाता हुआ करता था, इसीलिए बंगाल से लेफ्ट का गायब होना उसके लिए सबसे बुरा संकेत है. एक वक्त ऐसा था जब पश्चिम बंगाल की सियासत में लेफ्ट की तूती बोलती थी. पश्चिम बंगाल में पहली बार 21 जून, 1977 को लेफ्ट ने ज्योति बसु के नेतृत्व में सरकार बनाई थी.



सत्ता में आते ही लेफ्ट की सरकार ने इस अंदाज में काम किया कि उस वक्त हर कोई ज्योति बसु का मुरीद होने लगा. इमरजेंसी के बाद बनी सरकार ने सबसे पहले राजनीतिक बंदियों को रिहा करने का फैसला लिया. इसके बाद 1978 में नगर निगम चुनाव के वोटरों की उम्र सीमा 21 वर्ष से घटाकर 18 साल कर दी.


उस वक्त 8 साल में पहली कलकत्ता यूनिवर्सिटी में चुनाव कराए गए. ज्योति बसु की सरकार ने 1980 में 10वीं तक की शिक्षा फ्री कर दी, अगले ही वर्ष 12वीं तक की शिक्षा मुफ्त कर दी गई. लेफ्ट की जमीन धीरे-धीरे मजबूत होने लगी, वामपंथी विचार वाले कई दल लेफ्ट में शामिल होने लगे. 1996 में ज्योति बसु को देश का प्रधानमंत्री तक बनने का ऑफर मिला था, लेकिन उनकी पार्टी ने ही इसके लिए इनकार कर दिया था.


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इसमें कोई संशय नहीं है कि देश से लेफ्ट का सफाया हो रहा है और पूरी की पूरी लेफ्ट सिर्फ पिनराई विजयन की गुलाम बनकर जी हुजूरी करने में लगी हुई है. देश से लेफ्ट का पतन हो रहा है. ऐसे में लेफ्ट के सभी दिग्गजों से लेकर छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं को आत्ममंथन करने की आवश्यकता है.


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