मुंबईः हिंदी के छात्र ध्यान दें, एक कहावत है जिंदा मक्खी निगलना, कभी परीक्षा में इसका अर्थ लिखने को आ जाए और उदाहरण देकर समझाना पड़े तो आप सीधे सीएम बनने के लिए शिवसेना हो जाना लिखिएगा. ऐसा इसलिए क्योंकि लगातार जारी गतिरोध के बाद आखिर शिवसेना और एनसीपी ने सरकार बनाने पर सहमति दिखाई तो उन्हें कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही है. यह वही कांग्रेस है जिसका शिवसेना धुर विरोध करती आई है. इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि कांग्रेस ने जहां-जहां बाहर से किसी पार्टी को सहारा दिया है वह कुछ ही दिनों में लड़खड़ा गई है. कुल मिलाकर उद्धव सीएम कुर्सी की ओर बढ़ तो रहे हैं, लेकिन टूटी लाठी लेकर
पिछले राजनीतिक चुनाव इसकी चुगली कर रहे हैं
अभी कांग्रेस पूरे प्रकरण को इस तरह देख रही है कि उसने भाजपा की नाक के नीचे से सीएम कुर्सी निकाल ली है. राज्य में जारी इस नाटक में जो कांग्रेस अब तक मौन थी, उसने भाजपा के सीन से हटने के बाद फटाफट साइड एक्टर की भूमिका में आकर डॉयलॉग बोलना शुरू कर दिया. अब तय हुआ है कि कांग्रेस शिवसेना और एनसीपी को बाहर से समर्थन देगी.
लेकिन मुंबई कांग्रेस के नेता संजय निरूपम इस पूरे राजनीतिक रण में वाकई संजय वाली भूमिका में हैं. उन्होंने एक दिन पहले कहा था कि अगर कांग्रेस पार्टी शिवसेना के साथ सरकार में शामिल होती है, तो ये विनाशकारी साबित होगा जो कभी नहीं होना चाहिए. संजय जो देख रहे हैं और बोल रहा हैं वह बीते कई सालों का भोगा हुआ सच है. कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाना और फिर इसका गिर जाना एक परिपाटी की तरह रहा है.
For younger readers, this man spent years in the same Shiv Sena he is now opposing.....https://t.co/K4BjUwpRVM
— vir sanghvi (@virsanghvi) November 10, 2019
बाला साहब ठाकरे की बात
शिवसेना प्रमुख रहे बाला साहेब ठाकरे अपने कार्टूनों में कांग्रेस का खूब विरोध किया करते थे. कट्टर हिंदू छवि वाले ठाकरे तब इंदिरा-गांधी पर जब-तब निशाना साधा करते थे, लेकिन 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तो शिवसेना ने समर्थन कर दिया. इसके बाद 1977 के चुनाव हुए इसमें भी बालासाहेब ने कांग्रेस को समर्थन दिया. इससे हुआ यह कि उनकी कट्टर हिंदू वाली छवि को थोड़ी चोट पहुंची.
इस थोड़ी चोट का असर यह हुआ कि शिवसेना को यह समर्थन काफी भारी पड़ा. इसके अगले ही साल 1978 के विधानसभा चुनाव हुए और इसके बाद ही बीएमसी चुनाव भी हुए. इन दोनों में ही शिवसेना को हार का सामना करना पड़ा. शिवसेना और उद्धव इसे याद रखें.
कर्नाटक में हुआ था बुरा हाल
साल 2018 में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हुए. यहां 222 में से बीजेपी 104 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई. दूसरे नंबर पर 78 सीटों के साथ कांग्रेस और जेडीएस 37 सीटें जीतने में सफल हुई है. भाजपा के बहुमत से दूर रहने के कारण राज्य में जेडीएस-कांग्रेस के गठबंधन ने सरकार बनाई थी. यह सरकार 14 महीने चल पाई और इस दौरान डांवाडोल वाली स्थिति ही रही.
फिर धीरे-धीरे भाजपा ने विधायकों को तोड़ना शुरू किया और इसके बाद कांग्रेस विधायकों में ही आपसी मारपीट हो गई. सामने आया था कि कांग्रेस के जेएन गणेश और एक अन्य विधायक भाजपा के संपर्क में थे. इसी बात को लेकर गणेश और आनंद के बीच बहस हो गई. बहरहाल इस लड़ाई से कांग्रेस की रार खुल कर सामने आ गई. बेचारी जेडीएस लाचार बनी खुद को हाशिए पर जाती देखती रही. सीएम बने एचडी कुमारस्वामी अपनी पार्टी और कांग्रेस विधायकों की बगावत के चलते सरकार गंवा बैठे. इसे कांग्रेस का ही 'प्रताप' समझा जाए.
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कश्मीर पर डालते हैं नजर
कश्मीर में तो कांग्रेस के गठबंधन से सरकार गंवाने की इबारत लिखने का लंबा अध्याय रहा है. इसकी शुरुआत होती है 1977 से जब कांग्रेस ने नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला से समर्थन वापस ले लिया था.
इसके बाद सरकार गिर गई. 1986 में फिर यही दौर वापस आया. इस बार कांग्रेस (आई) ने अवामी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेतृत्व वाली गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया. 2008 और 2009 के बीच कांग्रेस-पीडीपी का गठबंधन था. जो राज्य व्यवस्था में मतभेदों की वजह से टूट गया और कांग्रेस समर्थित सरकार गिर गई.
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