टूट गया शिवसेना का धनुष! अब बाला साहब से किया वादा कैसे पूरा करेंगे उद्धव?

शिवसेना ने जिस कुर्सी की चाहत लेकर अपने 30 साल पुराने साथी भाजपा से रिश्ता तोड़ दिया और उद्धव ठाकरे ने ये हवाला दिया कि उन्होंने बाला साहब से एक वादा किया है. लेकिन सवाल तो अब ये है कि महाराष्ट्र की जनता के साथ मजाक करके वो बाला साहब से किया वादा कैसे निभाएंगे.

Written by - Ayush Sinha | Last Updated : Nov 13, 2019, 06:16 AM IST
    1. महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है
    2. उद्धव ठाकरे ने भाजपा से नाता तोड़ दिया है
    3. बाला साहब के नीतियों को भूल गई शिवसेना
टूट गया शिवसेना का धनुष! अब बाला साहब से किया वादा कैसे पूरा करेंगे उद्धव?

नई दिल्ली: युद्ध के बीच मैदान में शिवसेना का धनुष टूट गया है. उद्धव के धनुष से तीर चला ही नहीं, तो निशाने पर क्या लगता? उद्धव ठाकरे ने बाला साहब ठाकरे से किए गए जिस वादे को पूरा करने के लिए अपनी 30 साल पुरानी साथी भारतीय जनता पार्टी से नाता तोड़ा था. वो वादा अधूरा रह गया.

शिवसेना का दांव 'टांय-टांय फिस्स'

आदित्य ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नहीं बन पाए. यानी शिवसेना का सपना टूट गया. सरकार बनाने का जुबानी दावा तो शिवसेना ने बड़े चौड़े होकर कर दिया था. लेकिन जब सरकार बनाने की बारी आई, तो वो 'टांय, टांय, फिस्स' हो गई. कहां तो पूरी शिवसेना ने सरकार बनाने का ख्वाब दिखाकर भाजपा से नाता तोड़ लिया, लेकिन राज्य में राष्ट्रपति शासन की नौबत आ गई. लेकिन उस वक्त असल पोल खुल गई जब, महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगने के बाद शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे साहेब मीडिया के सामने आते हैं. और जी भर के दुहाई देना शुरू कर देते हैं. 

उद्धव की चिकनी-चुपड़ी बातें

नेताजी यानी उद्धव ठाकरे अधर में लटके कांग्रेस-एनसीपी के साथ अपने रिश्तों पर बड़ी चिकनी चुपड़ी बातें करना शुरू कर देते हैं. वो इस बात की दलील देने लगते हैं कि अगर अलग-अलग विचारधारा वाले दल साथ आकर सरकार चलाना चाहते हैं, तो इसमें समय लगता है. शायद उद्धव ठाकरे हाल ही में हुए चुनावी मौसम में प्रचार को भूल गए हैं. क्योंकि वो कभी भाजपा की तारीफ में कसीदे पढ़ा करते थे. तो कांग्रेस को फूटी आंख देखना भी पसंद नहीं करते थे. लेकिन कुर्सी की चाहत और पुत्र मोह-माया ने उद्धव ठाकरे को कांग्रेस के सामने मत्था टेकने को मजबूर कर दिया.

भाजपा से अलग होकर शिवसेना को सिवाय फजीहत के कुछ नहीं मिला. उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद के पीछे भागना महंगा पड़ा. ना सत्ता मिली, ना सीएम की कुर्सी. शिवसेना ने अपनी इस गलती से कुछ पाया तो नहीं लेकिन खो बहुत कुछ दिया.

1). दिल्ली की सत्ता में 2024 तक की हिस्सेदारी चली गई. एक केंद्रीय मंत्री पद हाथ से चला गया.
2). 30 साल पुरानी सहयोगी पार्टी से दोस्ती टूट गई.
3). एनडीए से बाहर तो हुए लेकिन नई दोस्ती की जमीन तैयार होने से पहले ही जमीन खिसक गई.

नाक रगड़ने पर भी नहीं बनी बात?

24 घंटे के भीतर महाराष्ट्र में हुआ उलटफेर शिवसेना की फजीहत करा गया. इस दौरान उद्धव ने जो कुछ किया, वो इससे पहले कभी नहीं हुआ. जिस मातोश्री में कभी दूसरे दलों के नेता खुद चलकर बाला साहेब का आशीर्वाद लेने आते थे. उसी मातोश्री से चलकर उद्धव ठाकरे को शरद पवार से मिलने एक होटल तक जाना पड़ा. फिर भी राज्य में शिवसेना की सरकार नहीं बनी. शरद पवार चाहते तो वे खुद भी उद्धव के घर आ सकते थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

पवार से उद्धव को सिर्फ भरोसा मिला. वो भी तब जबकि उद्धव खुद चलकर उनकी दर पर पहुंचे थे. बाला साहेब ठाकरे होते तो ऐसा मुमकिन नहीं था. बाल ठाकरे अपनी शर्तों पर सियासी दोस्ती का हाथ बढ़ाते थे. लेकिन ये उद्धव युग है और ये साबित हो चुका है कि उद्धव की शिवसेना बाला साहेब की शिवसेना नहीं है.

सोनिया के सामने भी झुक गए उद्धव

सत्ता की खातिर, उद्धव ठाकरे को सोनिया गांधी से सहयोग मांगना पड़ा. जिस सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर शिवसेना उन्हें पानी पी-पीकर कोसती रही. बात-बात पर इटली का आईना दिखाती रही. उन्हीं सोनिया गांधी के आगे उद्धव ठाकरे को नतमस्तक होना पड़ा. उनसे समर्थन मांगना पड़ा, उद्धव ने सोनिया से फोन पर बात की. शिवसेना को सोनिया से समर्थन का भरोसा भी मिला. लेकिन पार्टी की तरह से ऐन मौके पर लेटर जारी नहीं हुआ. इस लेटर ने शिवसेना को इतना लेट कर दिया. कि उसे राज्यपाल के दरवाजे पर खाली हाथ पहुंचना पड़ा. तय वक्त तक वो सरकार बनाने लायक विधायकों के नंबर नहीं जुटा पाई. और मौका चूक गई.

अब एक बार फिर भाजपा फ्रंटफुट पर है, उसकी दोनों ऊंगली घी में है. राष्ट्रपति शासन का ठीकरा शिवसेना पर फूटा है. क्योंकि गठबंधन तोड़ने का फैसला शिवसेना का था. एनडीए को बहुमत मिलने के बावजूद सरकार नहीं बनने का जिम्मेदार वो शिवसेना को बता रही है.

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने गठबंधन तोड़ने से पहले बड़ी बड़ी बातें कर रहे थें. उन्होंने ये तक कहा था कि अगर भाजपा उसके नेता को मुख्यमंत्री बनाती है, तो ठीक. नहीं तो उसके बिना भी ऐसा कर दिखाएंगे. लेकिन उद्धव जी से ये नहीं हो पायाय एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिलाने का खुला ऐलान कर भी शिवसेना कुछ हासिल नहीं कर पाई. ऊपर से उद्धव की छवि पुत्रमोह में फंसे एक ऐसे नेता की बन गई. जिसे जमीनी हकीकत का अंदाजा नहीं.

पिछले 30 साल से शिवसेना राजनीति के जिस ट्रैक पर चल रही थी. उसे उसने अचानक बदलने की कोशिश की. इसी वजह से उद्धव ठाकरे औंधे मुंह गिर गए हैं. जिस एनसीपी और कांग्रेस से शिवसेना की विचारधारा का कोई मेल नहीं, उससे हाथ मिलाने की उद्धव की बेकरारी ने उनकी छवि एक मौकापरस्त नेता की बना दी है. जिसके लिए 'सत्ता' विचारधारा से ऊंची चीज है.

उद्धव ठाकरे की बचकाना हरकत

उद्धव की अगुवाई वाली शिवसेना की ये इमेज बाल ठाकरे के जमाने की शिवसेना से मेल नहीं खाती है. ये सच है कि बाल ठाकरे ने भी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया था. लेकिन उन्होंने कभी भी इतनी तेजी से ट्रैक चेंज नहीं किया था कि गाड़ी पटरी से ही उतर जाए. उन्हें इस बात का पूरा अंदाजा रहता था कि कब स्पीड बढ़ानी है और कब कम करनी है. बाल ठाकरे वो शख्सियत थे जो दूसरे नेताओं का अपनी पार्टी के फायदे के लिए इस्तेमाल करते थे. खुद इस्तेमाल नहीं होते थे. उद्धव का फैसला इस मामले में बचकाना माना जा रहा है.

हर बात में बाला साहब के कंधे पर बंदूक!

उद्धव भले ही हर बड़े फैसले को बाला साहब ठाकरे के सपने और उनकी सोच से जोड़ते हों. लेकिन सच ये है कि बाला साहब ठाकरे वक्त के मुताबिक अपना रुख, दोस्त और सहयोगी बदलते के बावजूद अपनी व्यक्तिगत छवि पर कभी आंच नहीं आने देते थे. ठाकरे कई बार कांग्रेस से हाथ मिलाने के बावजूद अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि को बनाए रखने में कामयाब रहे.

उद्धव ठाकरे ना तो दोस्तों से दोस्ती कायम रख सके, ना ही नए दोस्त बना पाए. जबकि इस मामले में बाला साहब ठाकरे का कोई जवाब नहीं था. बीजेपी से दोस्ती से सालों पहले बाल ठाकरे कांग्रेस के भी दोस्त रह चुके थे. साल 1971 में शिवसेना ने मोरारजी देसाई की अगुवाई वाली कांग्रेस के बागी धड़े. कांग्रेस ओ के साथ हाथ मिलाकर लोकसभा चुनाव लड़ा था. पार्टी ने 5 उम्मीदवार खड़े किए थे.

1975 में बाला साहब ठाकरे ने इंदिरा सरकार के इमरजेंसी लगाने के फैसले का खुला समर्थन किया था. बकायदा दूरदर्शन पर इस समर्थन का बयान जारी किया था. ठाकरे ने तब अपने अखबार, मार्मिक में लेख लिखकर कहा था कि अस्थिरता से निबटने के लिए इमरजेंसी अकेला उपाय है.

उन्हीं बाल ठाकरे ने खुद को उस भाजपा का सच्चा दोस्त साबित किया, जिसके तमाम बड़े नेता इमरजेंसी के दौरान महीनों जेल की सलाखों के पीछे रहे थे. 1966 में बनी शिवसेना की कांग्रेस से दोस्ती कभी खुल्लमखुल्ला तो कभी पर्दे के पीछे तकरीबन 2 दशकों तक कामय रही. जब भी मुंबई की मिलों में हड़ताल हुई. कम्युनिस्टों और समाजवादियों के विरोध में ठाकरे हमेशा कांग्रेस के साथ खड़े रहे.

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1977 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो बाल ठाकरे ने कांग्रेस का समर्थन कर दिया और अपने उम्मीदवार नहीं उतारे. इतना ही नहीं, ठाकरे ने तब कांग्रेस के समर्थन में चुनाव प्रचार भी किया था.

1980 के लोकसभा चुनाव में बाल ठाकरे ने कांग्रेस को चुनावी समर्थन दिया था. कांग्रेस उम्मीदवारों के खिलाफ तब शिवसेना ने उम्मीदवार नहीं उतारे थे.

बाल ठाकरे की विचारधारा समय के साथ बदलती रही. उन्होंने मुंबई में गैर मराठियों, खासकर दक्षिण भारत के लोगों के वर्चस्व का विरोध कर अपनी राजनीति की बुनियाद रखी थी. लेकिन समय के साथ वे अपनी राजनीति का आधार बदलते रहे, मुद्दे बदलते रहे. बाद में उन्होंने हिंदूवादी राजनीति को आगे बढ़ाया. लेकिन उद्धव ने पार्टी का गियर क्या बदला, शिवसेना को बहुत कुछ खोना पड़ा.

इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग से भी मिलाया था हाथ

इस बात की जानकारी आपको शायद ही होगी कि बाल ठाकरे ने वक्त पड़ने पर इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग से भी हाथ मिलाया था. फिर भी अपनी हिंदू राष्ट्रवादी नेता की छवि को कायम रखने में सफल रहे. 1971 में बीएमसी का चुनाव बाल ठाकरे ने मुसलमानों के वंदे-मातरम न गाने के मुद्दे पर लड़ा था. इस चुनाव में शिवसेना को बहुमत नहीं मिला, एक बार स्थाई समिति के अध्यक्ष के चुनाव के लिए उन्हें कुछ वोटों की जरुरत थी. इसके लिए बाल ठाकरे ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का समर्थन लिया. यही नहीं साल 1979 के बीएमसी के चुनाव में शिवसेना ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के साथ समझौता किया था. ठाकरे ने लीग के नेता जी एम बनातवाला के साथ रैली को भी संबोधित किया था. 

ऐसा बाला साहब ठाकरे ही कर सकते थे कि मुस्लिम लीग से हाथ मिलाकर भी उन्होंने अपनी कट्टर हिंदूवादी नेता की छवि बनाई. और इसे आखिर तक कायम रखा. लेकिन उद्धव पहली ही परीक्षा में फेल हो गए. 

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शिवसेना भले कह रही हो कि भाजपा ने वादा तोड़ा, इसलिए उसने पार्टी से रिश्ते खत्म कर लिए हैं. लेकिन ये बात जनता को समझाना आसान नहीं होगा. भाजपा और शिवसेना गठबंधन को जनता ने सरकार बनाने के लिए बहुमत दिया था, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. अब उद्धव ठाकरे को हर मंच पर इस सवाल का जवाब देना होगा कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? हालांकि उन्होंने जवाब देना शुरू भी कर दिया है.

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