नई दिल्ली. महाराष्ट्र में शरद पवार की अगुवाई वाली राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ हुए नाटकीय घटनाक्रम के बाद देश में संयुक्त विपक्ष के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. दरअसल एनसीपी इकलौती पार्टी नहीं है, इसके बाद राष्ट्रीय लोकदल के समाजवादी पार्टी से अलग होने की अटकलें, बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड में टूट की अटकलें भी सामने आई हैं. यानी विपक्षी पार्टियों या गठबंधन में टूट की खबरें अभी आती रह सकती हैं. अगर टूट न भी हो तो नैरेटिव के खेल में पार्टी के भीतर या गठबंधन में अलगाव की खबरें अपना काम कर जाती हैं. ऐसे में देश में एकजुट विपक्ष का विचार भी कमजोर दिखने लगता है. इसलिए संयुक्त विपक्ष के लिए कम से कम पांच ऐसे बिंदु हैं जिन पर काम करना बेहद जरूरी है. अगर इन बिंदुओं पर विपक्ष खुद को मजबूत नहीं पाता तो 2024 के लोकसभा चुनाव में जीत उसके लिए दूर की कौड़ी साबित हो सकती है. यही नहीं टूट-फूट की स्थिति में विपक्षी गठबंधन का प्रदर्शन पहले के लोकसभा चुनावों से भी बुरा हो सकता है. 


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1- निर्विवादित सीट शेयरिंग फॉर्मूला बनाना होगा
विपक्षी गठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती है सीट शेयर फॉर्मूले पर आम सहमति तैयार करना. निश्चित तौर पर विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है और 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर होता है तो वह 'बड़े भाई' की भूमिका में होगी. कई राज्य ऐसे हैं जहां पर क्षेत्रीय दल बेहद मजबूत स्थिति में हैं और कांग्रेस को इन दलों के साथ ऐसे सीट शेयरिंग फॉर्मूले पर काम करना है जिससे विवाद की स्थिति न बने. 


ऐसे राज्यों में कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों को कम दिक्कतों का सामना करना होगा जहां पर पहले कोई गठबंधन बना हुआ है. ऐसे राज्यों में महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्य हैं. इन राज्यों में पहले कांग्रेस-एनसीपी शिवसेना या फिर कांग्रेस-जेडीयू और राजद के बीच गठबंधन बना हुआ है. बड़ी दिक्कत दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में हो सकती है. दिल्ली और पंजाब जैसे राज्यों में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस का केंद्र के ऑर्डिनेंस के मसले पर तनाव है. वहीं पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के सामने ममता बनर्जी की अगुवाई तृणमूल कांग्रेस है. राज्य में तृणमूल कांग्रेस का विरोध कांग्रेस उतनी ही मजबूती के साथ कर रही है जितनी मजबूती के साथ भारतीय जनता पार्टी कर रही है. इसके अलावा केरल में भी सत्ताधारी सीपीएम पर कांग्रेस लगातार हमलावर है. केरल कांग्रेस के अध्यक्ष ने तो सत्तारूढ़ सीपीएम पर हत्या के प्रयास जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं. ऐसे में सीट शेयरिंग का फॉर्मूला तय करना एक दुरूह कार्य हो सकता है जिसे विपक्षी गठबंधन की पार्टियों को ऐसे सुलझाना होगा जिससे किसी विवाद की स्थिति न बने.


2-जातीय समीकरण के आधार पर सही सीट शेयरिंग तय करनी होगी
सभी विपक्षी पार्टियों को सीट शेयरिंग का फॉर्मूला तय करते हुए जातीय समीकरण समेत तमाम अन्य मुद्दों पर भी विशेष ध्यान देना होगा. ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि संयुक्त विपक्ष को ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारना होगा जो क्षेत्रीय मुद्दों को पूरी तरह समझते हों और साथ ही स्थानीय समीकरणों में भी फिट बैठते हों.


3-पार्टियों को भितरघात और नाराजगी दूर करनी होगी
विपक्षी पार्टियों के सामने भितरघात भी एक बड़ी चुनौती है. यह समस्या अब तक सबसे प्रखर रूप में महाराष्ट्र में सामने आई है. उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिवसेना हो या फिर शरद पवार की एनसीपी. इन दोनों ही पार्टियों इतनी जबरदस्त टूट हुई है कि पार्टी नेतृत्व के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है. अब बिहार में जेडीयू में भी टूट की अटकलें सामने आई हैं. ऐसी स्थिति में एक मजबूत विपक्ष खड़ा होने की बजाए पार्टियों के मनोबल पर बेहद नकारात्मक असर होगा. विपक्षी दलों के नेतृत्व के पार्टी के भीतर की टूट को भी रोकना होगा जिससे आम जनता के बीच यह संदेश दिया जा सके कि संयुक्त विपक्ष केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को टक्कर देने में पूरी तरह सक्षम है.


4-सत्ताधारी बीजेपी के खिलाफ एक एजेंडा और गठबंधन की लाइन तय करनी होगी
बीते 9 वर्षों के शासन के दौरान केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगवाई वाली एनडीए सरकार ने एजेंडे के रूप में एकरूपता रखी है. भले ही कुछ पार्टियां एनडीए से अलग भी हुई हों लेकिन गठबंधन का एजेंडा एक बना रहा. ठीक इसी तरह संयुक्त विपक्ष को भी राष्ट्रीय स्तर पर अपना एक एजेंडा और लाइन तय करनी होगी जिसे सभी पार्टियां मानें. एजेंडे से अलग हटकर बात करने पर न केवल गठबंधन कमजोर दिखाई देगा बल्कि दिशाहीनता भी लोकसभा चुनाव में बड़ा नुकसान कर सकती है. 


5-ऐसे मुद्दों से दूरी बनानी होगी जिससे बवाल खड़ा हो
विपक्षी नेताओं को लोकसभा चुनाव की तैयारियों में इस बात का भी विशेष खयाल रखना होगा कि पार्टियों के नेता अनर्गल बयानबाजी से बचें. गलत मुद्दों पर बयानबाजी कर कई बार पार्टियां अपना वोटबैंक खुद से कमजोर करती हैं.


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