Bhagat Singh Shaheed Diwas: तारीख 23 मार्च, साल 1931, घड़ी में शाम के 4 बज रहे थे. लाहौर की सेंट्रल जेल के वॉर्डेन चरत सिंह ने सभी कैदियों से अपनी-अपनी कोठरियों में जाने के लिए कह दिया. कैदियों को ताज्जुब हुआ, क्याेंकि उन्हें तय समय से 4 घंटे पहले ही कोठरियों में जाने के लिए कह दिया गया था. जब कैदियों ने इसका कारण पूछा, तो वार्डेन ने अपनी कड़क आवाज में कहा, 'आदेश ऊपर से है.' दूसरी ओर, जेल का नाई बरकत कोठरियों के सामने से धीमी आवाज में यह कहते हुए निकला, आज रात भगत सिंह जाने वाले हैं और फिर उसी रात भगत सिंह को, तय समय से पहले ही फांसी पर लटका दिया गया. ऐसे में आइए, शहीद-ए-आजम भगत सिंह की शहीदी दिवस पर उनकी जिंदगी के आखिरी लम्हों पर नजर डालते हैं.
बहरी हो चुकी थी अंग्रेज सरकार!
अप्रैल 1929 की बात है. अंग्रेज सरकार भारतीय क्रांतिकारियों के दमन के लिए दो नए बिल 'पब्लिक सेफ्टी' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' ले आ रही थी. इधर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त, किसी भी हालात में इस बिल को पास नहीं होने देना चाहते थे. उन्होंने विरोध दर्ज करने के लिए एक योजना बनाई. 8 अप्रैल 1929 को असेंबली में बिल पर बहस चल ही रही थी कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अंग्रेजी हुकूमत को अपनी आवाज सुनाने और उनकी नीतियों के प्रति विरोध जताने के लिए असेंबली में बम फेंका.
इस बम का मकसद केवल बहरी हो चुकी अंग्रेज सरकार तक अपनी बात पहुंचाना था, इससे किसी को खरोच तक नहीं आई. भगत सिंह ने बम फेंकने के बाद कुछ पर्चे भी फेंके. जिसकी पहली लाइन थी. 'बहरों को आवाज सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत थी' इसके बाद दोनों क्रांतिकारियों ने भागने के बजाए आत्मसमर्पण किया.
24 मार्च तय हुई फांसी की तारीख
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त धमाके के बाद भाग सकते थे, पर अपनी आवाज पूरे भारत में पहुंचाने के लिए गिरफ्तारी दी. दोनों को लाहौर जेल में बंद कर दिया गया और उन पर असेंबली में बम फेंकने को लंबा केस चला. इस घटना से अंग्रेजी सरकार पूरी तरीके से डर चुकी थी, क्योंकि इससे पहले सांडर्स की हत्या में भगत सिंह ने ही कमान संभाली थी.
डेढ़ साल से भी ज्यादा वक्त तक चली सुनवाई के बाद, लाहौर हाईकोर्ट में 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सांडर्स की हत्या और लाहौर षड्यंत्र का दोषी मानते हुए फांसी की सजा सुना दी गई. फांसी की तारीख 24 मार्च, 1931 तय हुई. वहीं, बटुकेश्वर दत्त को असेंबली में बम फेंकने के मामले में, उम्रकैद की सजा सुनाई गई. हालांकि फांसी के तय समय से पहले कुछ ऐसा हुआ कि पूरा भारत सहम उठा.
सभी कैदियों को बैरक में भेजा
23 मार्च 1931 का दिन, आम दिनों की तरह ही शुरू हुआ था, लेकिन जेल की गतिविधियां कुछ ठीक नहीं मालूम पड़ रही थी. दरअसल, उस रोज जेल का वॉर्डेन चरत सिंह, जोर-जोर से शाम करीब 4 बजे से ही सभी कैदियों को अंदर जाने को कह दिया. अमूमन दिन ढलने के बाद ही कैदी अपने बैरक में जाते थे. लेकिन उन्हें इस बात का आभास हो चुका था कि कुछ बड़ा होने वाला है. सभी कौतूहल से सलाखों के पीछे से झांक रहे थे.
हमेशा खुशमिजाज दिखाई देने वाला जेल का नाई बरकत, उदास चेहरा लिए हुए कोठरियों के बगल से गुजरा और बुदबुदाने लगा. वह धीमी आवाज में यह कहते हुए निकला कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है. इतना ही सुनना था कि पूरे जेलखाने में सन्नाटा पसर गया.
वैसे तो फांसी की तारीख 24 मार्च तय हुई थी, लेकिन यह सबकुछ 1 घंटे पहले ही हो रहा था
किताब उछाली और कहा चलो चलें
भगत सिंह को किताबें पढ़ने का बेहद शौक था. फांसी से कुछ घंटे पहले भगत सिंह के वकील प्राण नाथ मेहता, जब उनसे मिलने पहुंचे तो वह उस छोटी सी कोठरी में ऐसे चक्कर लगा रहे थे. जैसे किसी बन्द पिंजरे में शेर चक्कर लगा रहा हो. बहरहाल, भगत सिंह को इंतजार उस पुस्तक की थी, जिसे वह आखिरी समय में पढ़ना चाहते थे.
मेहता को देखते ही भगत सिंह मुस्कुराकर उनका स्वागत करते हैं और पूछते हैं, आपने लेनिन की किताब 'स्टेट एंड रिवॉल्यूशन' लाए? जैसे ही मेहता ने भगत सिंह के हाथ में किताब सौंपी, वे तुरंत पढ़ने बैठ गए.
इतिहासकार एम एम जुनेजा की पुस्तक के अनुसार, भगत सिंह के करीबी रहे मन्मथनाथ गुप्ता उन पलों के बारे में लिखते हैं, 'जब भगत सिंह को फांसी पर चढ़ने के लिए बुलाया गया, तब वह लेनिन की या लेनिन पर लिखी कोई किताब पढ़ रहे थे. भगत सिंह ने पढ़ते हुए कहा 'थोड़ा रूको. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से बात कर रहा है.' उनकी आवाज में कुछ ऐसा था कि जल्लाद चुप हो गए. भगत सिंह ने पढ़ना जारी रखा. कुछ पलों के बाद उन्होंने किताब छत की ओर फेंकी और कहा 'चलो चलें'.
घर का खाना खाने की जताई इच्छा
भगत सिंह ने फांसी से पहले, शाम को एक सफाईकर्मी बेबे से उनके लिए खाना लाने को कहा था. बेबे ने तुरंत भगत सिंह के अनुरोध को स्वीकार कर लिया और घर से खाना बनाकर लाने के लिए चली गई, लेकिन सुरक्षा कारणों के चलते बेबे शाम को जेल वापस नहीं आ पाई. उस वक्त लाहौर जेल के अंदर और बाहर दोनों तरफ हलचल मची हुई थी क्योंकि जेल के अधिकारियों को अशांति की आशंका थी.
कुछ ही देर बाद अंग्रेज फांसी की तैयारी के लिए भगत सिंह और उनके साथियों को लेकर बाहर निकलते हैं. उस वक्त चारो ओर सन्नाटा पसरा हुआ था.
इंकलाब जिंदाबाद के नारे से गूंज उठी जेल
भगत सिंह के फांसी की तारीख 24 मार्च 1931 को तय हुई थी और यह बात पूरे देश में आग की तरह फैल चुकी थी. अंग्रेजों को इस बात का डर था कि कहीं फांसी वाले दिन, जेल पर भारतीय हमला ना कर दें. इसी डर से अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथियों को तय समय से 12 घंटे पहले फांसी देने का हुक्म दे दिया.
कुछ देर बाद, भगत सिंह और उनके साथी सुखदेव और राजगुरु को फांसी के तख्ते के पास खड़ा कर दिया गया. तीनों ने गर्दन के ऊपर से फांसी से ठीक पहले तीनों ने 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाया. देखते ही देखते जेल में बंद सभी कैदी, एक स्वर में इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने लगे. पूरा जेलखाना इंकलाब जिंदाबाद के नारे से गूंज उठा.
लाहौर जिला कांग्रेस के सचिव पिंडी दास सोढ़ी सेंट्रल जेल के पास ही रहते थे. जेल के नारे की गूंज उनके घर तक सुनाई दे रही थी.
'ब्रिटिश साम्राज्य मुर्दाबाद'
IAS अधिकारी आरके कौशिक हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं, 'डिप्टी कमिश्नर एए लेन रॉबर्ट्स आईसीएस के 1909 बैच के एक बातूनी अधिकारी थे. जब तीनों युवा फांसी के तख्त पर पहुंचे, तो उन्होंने भगत सिंह से बात की. तब भगत सिंह ने पूरे विश्वास के साथ कहा कि लोग जल्द ही देखेंगे और याद रखेंगे कि कैसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने बहादुरी से मौत को चूमा.
भगत सिंह ने अपने गले के ऊपर मास्क पहनने से इनकार कर दिया. यहां तक कि मास्क को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट पर फेंक दिया था. इसके बाद भगत सिंह और उनके साथियों ने आखिरी बार एक-दूसरे को गले लगाया, और 'ब्रिटिश साम्राज्य मुर्दाबाद' के नारे लगाए.
12 घंटे पहले दे दी गई फांसी
जो फांसी 24 मार्च 1931 की सुबह दी जानी थी, वह फांसी 12 घंटे पहले 23 मार्च 1931 की शाम 7 बजकर 33 मिनट पर दे दी गई. जल्लाद मसीह ने एक-एक करके तीनों के पैर के नीचे से लीवर को खींच दिया. और कुछ इस तरह देश के तीन क्रांतिकारी नौजवान, देश की आजादी के लिए शहीद हो गएं. उस वक्त भगत सिंह की उम्र मात्र 23 वर्ष ही थी.