भारत में जब भी जेलों की बात होती है तो अक्सर कानून, सुरक्षा या अपराधियों की चर्चा होती है. लेकिन इतिहास में एक ऐसी जेल भी रही है, जो सिर्फ एक कैदखाना नहीं बल्कि दर्द, तड़प और अंधेरे का दूसरा नाम थी. वहां पहुंचना मतलब अपनी जिंदगी से उम्मीद छोड़ देना. ऐसा कहा जाता था कि जो वहां गया, वो इंसान बनकर कभी लौट नहीं पाया. आइए जानते हैं इस जेल के पीछे का पूरा इतिहास.
जहां सजा नहीं, नरक मिलता था
इस जेल को कुछ इस तरह से बनाया गया था कि वहां बंद कैदी सिर्फ शरीर से नहीं, आत्मा से भी टूट जाया करते थे. वहां की दीवारें चीखों को निगल जाती थीं, और वहां की खामोशी डर पैदा करती थी. कैदियों को न बात करने की इजाजत थी, न रोने की. यहां तक कि दिन में भी अंधेरा महसूस होता था.
कौन सी जेल है?
यह भयानक जेल कहीं और नहीं, बल्कि समुद्र के बीच बसे अंडमान निकोबार द्वीप में है और इसका नाम है, 'सेल्युलर जेल', जिसे लोग 'काला पानी' के नाम से जानते हैं. यह जेल कुछ इस तरह से बनाई गई थी कि हर कैदी को एक अलग कोठरी में रखा जाता था. करीब 693 कोठरियां थीं, जिनमें कैदी अकेले रहते थे. न कोई बात करने वाला, न कोई सुनने वालाय. वो इंसान जिंदा जरूर रहता था, लेकिन खुद को खो बैठता था.
क्यों कहते थे इसे 'काला पानी'?
इस जेल का नाम आते ही लोग कांप उठते थे. क्योंकि जिसे यहां भेजा जाता था, समाज मान लेता था कि वो अब मर गया है. चारों तरफ समंदर, भागने का कोई रास्ता नहीं. और अंदर सिर्फ सजा नहीं, शरीर और मन को तोड़ देने वाला अंधकार था.
स्वतंत्रता सेनानियों की आखिरी ठिकाना
बहुत से क्रांतिकारियों को यहां भेजा गया था, वीर सावरकर, बटुकेश्वर दत्त जैसे नाम यहां की दीवारों पर आज भी दर्ज हैं. उन्होंने यहां जो सहा, वो आजादी के लिए दी गई सबसे बड़ी कुर्बानियों में से एक है.