नई दिल्ली: ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जब दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात करने की कोशिश की, तो उन्हें मना कर दिया गया. सिंधिया को इससे तकलीफ हुई. जिसके बाद उन्होंने बड़ा फैसला लिया.
ये धोखे प्यार के धोखे
9 मार्च, साल 2020 की तारीख में अपने जो खत उन्होंने सोनिया गांधी को लिखा है उसमें सिंधिया का भारी मन, एक मजबूरी और धोखे की एक कहानी मिलती है. वो 18 साल तक हाथ के साथ बिताए समय को याद करते हैं, उनके शब्दों में कमलनाथ के साथ चल रही अनबन भी दिखती है और ये भी ज़ाहिर होता है कि अब कांग्रेस में उनकी कोई सुननेवाला नहीं रहा. ना तो राज्य में उनकी सुनी जा रही है और ना ही पार्टी आलाकमान में कोई सुनवाई है.
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पहले भी सिंधिया का दर्द सामने आ चुका है जब एमपी में वो अपनी ही सरकार को चुनौती देते हैं और उस पर कमलनाथ भी कड़ा रुख दिखाते हैं. यही वजह है कि वो ये कह जाते हैं कि कांग्रेस में रहकर देश के लिए काम नहीं कर पा रहा.
पिछले एक साल सिंधिया के लिए बहुत भारी थे, 18 सालों में ये साल उन्होंने हर पल कांग्रेस को छोड़ देने की ही सोची. अभी जनवरी में भी उनका दर्द सामने आया था जब वो ये कह गए कि कुर्सी को ठुकराना आसान नहीं होता और कुर्सी के लिए लोग 10-10 सिर तक काट डालते हैं. यही वो दर्द थे कि उन्होंने उस पार्टी को अलविदा कह दिया जिसके लिए उन्होंने 18 साल दे दिए.
तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम
सिंधिया एक ऐसे सितम का शिकार हो रहे थे जिसे लेकर उन्हें पूरी उम्मीद थी कि कम से कम राहुल गांधी और प्रियंका उनके साथ खड़े होंगे. 2018 में मध्यप्रदेश से शिवराज सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद से ही ये रार चल रही थी.
कांग्रेस पार्टी पिछली पीढ़ी में फंसी रही और सिंधिया को एमपी में कुछ हासिल नहीं हुआ जबकि ये उनकी दिन रात की मेहनत थी जो एमपी में कांग्रेस वापसी कर पाई थी. सीएम के लिए कमलनाथ को चुना गया.
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राहुल को पसंद थे सिंधिया लेकिन सोनिया को नापसंद
राहुल गांधी की पहली पसंद ज्योतिरादित्य ही थे लेकिन पर्यवेक्षक बनकर मध्य प्रदेश पहुंचे एके एंटनी ने कमलनाथ का नाम आगे किया और कमलनाथ सरकार बनने के बाद ज्योतिरादित्य को हाशिए पर धकेला जाने लगा. सिंधिया ने कई मौकों पर विरोध किया और पार्टी में विरोध दर्ज कराया लेकिन दिग्गी और कमलनाथ की जोड़ी उन पर भारी पड़ती रही.
सिंधिया की रही सही पोजिशन को 2019 में गुना सीट से हार ने डेंट लगा दिया. वो अलग-थलग पड़ चुके थे, दिग्गी और कमलनाथ ने सोनिया से सिंधिया के विरोध में बातें रखीं. ना सरकार में ना पार्टी में कहीं भी सिंधिया अहम भूमिका में नहीं थे, दिग्गी राजा के अड़ंगा लगाने से राज्यसभा में जाने की उम्मीदों पर भी पानी फिर गया.
एक पीढ़ी, दूसरी पीढ़ी को हरा रही थी, मनोबल गिरा रही थी और इसी के चलते आखिरी चाल चली ज्योतिरादित्य ने और बना लिया विधायकों का एक विरोधी गुट.
इसी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस को टाटा बाय-बाय कर दिया, ठीक वैसे ही जैसे 1967 में उनकी दादी ने कांग्रेस को अलविदा कहकर जनसंघ का दामन थाम लिया था.
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