कारगिल का वो हीरो जिसने कहा था, `रास्ते में मौत आई तो उसे भी हरा दूंगा`
अगर तुमसे कोई ये कहे कि उसे मौत से डर नहीं लगता तो तुम ये समझ लेना की या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा है. मनोज पांडे गोरखा ही थे.
India, Pakistan Kargil War heroes: 'अगर मेरे फर्ज के रास्ते में मौत भी आती है तो मैं कसम खाता हूं कि मैं मौत को भी हरा दूंगा.’ ये पंक्तियां लिखीं मिली थीं 24 साल के एक भारतीय जांबाज की डायरी में जिसकी बहादुरी के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं. भले ही इन पन्नों पर स्याही से लिखे ये शब्द वक्त के थपेड़ों ने मिटा दिए हों लेकिन बहादुरी और साहस का जो पाठ इस युवा ने पढ़ाया वो भारत के वजूद तक लोगों के लिए प्रेरणा रहेगी और करोड़ों हिंदुस्तानियों को देश के लिए कुछ कर जाने, मर जाने का साहस देती रहेंगी. दरअसल, हम बात कर रहे हैं मनोज पांडे की जो भारत-पाकिस्तान के बीच 1999 में हुए कारगिल युद्द में शहीद हो गए थे. उनका जन्म 25 जून 1974 को यूपी के सीतापुर जिले में हुआ था. आइए आपको सुनाते हैं मनोज की वीरगाथा के किस्से...
मौत से नहीं लगता डर...
भारतीय सेना के नामचीन अधिकारियों में शुमार रहे फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कहते थे कि अगर तुमसे कोई ये कहे कि उसे मौत से डर नहीं लगता तो तुम ये समझ लेना की या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो गोरखा है. कारगिल में देश के लिए अपनी सांसों को कुर्बान करने वाले मनोज पांडे उनकी इस बात पर खरे उतरे. मनोज गोरखा रेजिमेंट का ही हिस्सा था, जिन्होंने मौत को भी तबतक हराकर रखा जब तक की अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर लिया.
सियाचिन से लौटते ही आया कारगिल के लिए बुलावा
मनोज जिस बटालियन का हिस्सा थे वो सियाचीन में अपना तीन महीने का कार्यकाल पूरा करके लौट रही थी तभी उन्हें कारगिल की ओर बढ़ने का आदेश मिला था. कारगिल में भारतीय सेना चारों तरफ से घिरी हुई थी. पाकिस्तानी ऊंचाइयों पर थे. हम नीचे थे. वहीं, खालुबार टॉप सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण इलाका था. वो एक तरह का 'कम्यूनिकेशन हब' भी था दुश्मनों के लिए. इस हमले के लिए गोरखा राइफल्स की दो कंपनियों को चुना गया. पाकिस्तानियों की ओर से मशीन गन की गोलियों की रफतार 2900 फ़ीट प्रति सेकेंड होती थी.
मनोज जिस बटालियन का हिस्सा थे उसे जुबार, कुकरथाम और खालुबार इलाकों की जिम्मेदारी दी गई थी. जुबार और कुकरथाम पर भारतीय जांबाजो ने कब्जा जमा लिया. इसके बाद वे खालुबार की ओर बढ़े. 2 और 3 जुलाई 1999 की मध्यरात्रि में वह दुश्मन पर अंतिम हमला करने के लिए अपनी पलटन के साथ बढ़े. चारों ओर से दुश्मन गोलियां बरसा रहा था. कैप्टन पांडे को घुसपैठियों को बाहर खदेड़कर पोस्ट्स पर दोबारा कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी.
गोली लगने के बाद भी दुश्मन को किया ढेर
कैप्टन पांडे ने अपनी पलटन को इस तरह से निर्देश दिए कि दुश्मन को सफलतापूर्वक घेर लिया गया. वह बिना डरे दुश्मन पर हमला करते रहे. कैप्टन पांडे ने दुश्मनों के तीन बंकर को तबाह कर दिया था, लेकिन तबतक कई गोलियां उन्हें लग चुकी थीं. लेकिन उखड़ती सांसों में हौसला था तो बस जीत का और याद थी तो बस एक ही बात की- मेरे फर्ज के रास्ते में मौत भी आई तो उसे हरा दूंगा. मनोज को पता था कि अगर ये चौथा और आखिरी बंकर ने उन्होंने उड़ा दिया तो पाकिस्तानियों की कमर टूट जाएगी. मनोज की हालत को देखते हुए उनके साथियों ने कहा कि एक ही बंकर बचा है आप बैठें हम इसे खत्म करके आते हैं. लेकिन मनोज ने उन्हें रोक दिया.
उन्होंने कहा कि इन बंकरों को तबाह करने की जिम्मेदारी हमें दी गई है. इसे मैं ही खत्म करुंगा. इसके बाद वो रेंगते रेंगते चौथे बंकर के पास पहुंचे और उसे भी तबाह कर दिया. लेकिन तबतक दुश्मनों की कई गोलियां मनोज के शरीर को छेद चुकी थीं. मनोज के आखिरी शब्द थे ना छोड़नूं जिसका मतलब था उनको छोड़ना नहीं. अब मनोज के चेहरे पर दर्द नहीं था, मुस्कान थी. आंखों में आंसू तो थे लेकिन वो खुशी के थे, क्योंकि भारत ने खालुबार को कब्जे में ले लिया था और तिरंगा ऊपर जा रहा था. उसी झंडे की ओर आंखे गड़ाए मनोज ने महज 24 साल 7 दिन की उम्र में सांसों के बोझ से खुद को आजाद कर लिया था. उनके इस साहसिक काम के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया था.
एक सपना जो सच हो गया था
जिस समय कैप्टन मनोज पांडे का चयन एनडीए के लिए हुआ और वो सर्विस सेलेक्शन बोर्ड (एसएसबी) के इंटरव्यू में गए तो वहां उनसे सवाल किया गया, ‘आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं?’ इस पर कैप्टन मनोज ने जवाब दिया, ‘क्योंकि मुझे परमवीर चक्र जीतना है.’उनकी ये बातें सुनकर इंटरव्यू ले रहे लोग हंस पड़े थे, लेकिन किसे पता था कि ये तो मनोज का सपना था जिसे वो अब पा चुके थे.
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