ज़ी मीडिया की पड़ताल: निर्भया के गुनहगारों को बचाने की कोशिश वाला हाथ किसका था?

निर्भया के चारों गुनहगारों को उनके अंजाम पर पहुंचा दिया है हमारे देश के क़ानून ने.  20 मार्च 2020 की तारीख एक ऐतिहासिक मुकाम बनी है. लेकिन अगर नज़रें घुमा कर हम पीछे देखें तो इन चारों दरिन्दों को बचाने की कोशिश के पीछे नज़र आता है एक अदृश्य और काला हाथ. ये हाथ किसका है और इसे क्या दिलचस्पी हो सकती है इन नरपशुओं को फांसी से बचाने के पीछे? ज़ीन्यूज़ की इस तथ्यात्मक पड़ताल के भीतर ही संकेत है उस शख्स का जो हो सकता है इस कोशिश का मास्टरमाइन्ड. ये वही नकाबपोश चेहरा हो सकता है जिसके द्वारा इन गुनहगारों की के लिये की गई हद से ज्यादा मदद के दौरान उसका न हाथ नज़र आया न साथ..और वजह भी इसकी है बहुत साफ कि वह नकाबपोश एक सफेदपोश चेहरा है..   

Written by - Parijat Tripathi | Last Updated : Mar 21, 2020, 08:02 PM IST
    • निर्भया के गुनहगारों को बचाने की कोशिश करने वाला ये काला चेहरा किसका था?
    • फांसी से पहले की आधी रात को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई करवाने वाला कौन था?
    • आक्रामक तरीके से मुकदमा लड़ानेवाला वो स्पॉन्सर कौन था?
    • आठ बरस अदालत में मुकदमे की महंगी फीसें और महंगे वकील देने वाला कौन था?
    • सबसे घृणित अपराधी की मदद करने वाला कौन था?
    • आईसीजे में अपील की कोशिश कराने वाला कौन था
    • किस डील के तहत हो रही थी इतनी शिद्दत से चारों अपराधियों को बचाने की कोशिश?
ज़ी मीडिया की पड़ताल: निर्भया के गुनहगारों को बचाने की कोशिश वाला हाथ किसका था?

नई दिल्ली. नहीं सोचा गया ऐसा क्योंकि सोचने का समय किसी को नहीं मिला. अब जब इस अध्याय का पटाक्षेप हो चुका है तो इस तरफ ध्यान स्वतः ही जा रहा है कि कौन है वो नकाबपोश जो चाहता रहा पिछले आठ सालों में कि इन चारों पशुतुल्य अपराधियों को बचाया जा सके, भले ही इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु चाहे कितना ही पैसा बहाया जाए और कितना ही शातिर कानूनी दिमाग किराए पर लिया जाए.

अंतिम कदम की बात पहले 

सुबह 20 मार्च 2020 को चारों दरिन्दों को फांसी तय थी. लेकिन हैरानी हुई सारे देश को जब पता चला कि आधी रात को सुप्रीम कोर्ट में फिर एक बार सुनवाई के दरवाजे खुलवाए गए ताकि फांसी की तारीख फिर से आगे बढ़ाई जा सके. निर्भया के हत्यारे इन चारों बलात्कारियों के बचाव के लिए उठाए गए इस चौंकाने वाले कदम ने एक गम्भीर प्रश्न उठाया है कि आखिर निर्भया के इन चारों अपराधियों के संरक्षक कौन लोग हैं और इसके पीछे उनका छुपा हुआ एजेंडा क्या है?

सरकार को जांच करानी चाहिए 

आज से 7 साल पहले हुआ था यह घृणित आपराधिक कृत्य जिसकी भारत में ही नहीं सारी दुनिया में चर्चा हुई थी और दिल्ली को क्राइम कैपिटल का नाम दिया गया था. तब से इस फ़ाइल के क्लोज़ होने की तारीख 20 मार्च 2020 तक की इस मामले की कानूनी क्रोनोलॉजी देखिये तो आप पाएंगे कि किसी तरह की कोई कमी नहीं रखी गई इन अपराधियों को बचाने के लिये परदे के पीछे से होने वाली कोशिशों में. ये जो भी चेहरा था, आखिरी लम्हे तक परदे के पीछे छुपा रहा, इसके इन अपराधियों के लिए बढ़े हुए मददगार हाथ भी नज़र नहीं आये.

लेकिन एक बात तो तय है कि इस नकाब के पीछे छुपा चेहरा सफेदपोश है मगर उसका मुँह काला है और उसके इरादे तो और भी सियाह हैं. चोर मानसिकता के कारण कभी भी कोई अपराधी रौशनी में नहीं आना चाहता, वो किसी की भी नजर में आने से बचता है इसलिए इस नकाबपोश ने भी खुल कर सामने आने की हिम्मत कभी नहीं दिखाई.

देश की सरकार को CBI, IB या NIA के माध्यम से इस रहस्य की जांच अवश्य करानी चाहिए कि मौत के मुँह में जा रहे चार घृणित अपराधियों को बचाने की मंशा के पीछे का रहस्य क्या है और इसका मास्टरमाइन्ड चेहरा दरअसल है कौन?  

 

अपराधियों की आर्थिक पृष्ठभूमि जगजाहिर है 

ये तथ्य भला किससे छुपा है कि निर्भया के इन चारों घृणित अपराधियों की पृष्ठभूमि क्या है. ये चारों एक निजी बस में ड्राईवर कंडक्टर खलासी और क्लीनर के तौर पर काम करते थे. इसके बाद तो ये कहने की भी आवश्यकता नहीं है कि इनकी अर्थिक पृष्ठभूमि का आकलन किया जाना चाहिये. फिर इनके पास इतने साल  मुकदमा लड़ने का पैसा कहां से आया? 

 

सबसे घृणित अपराधी आज भी ज़िंदा है

हमारे देश के न्याय की देवी आंखों में पट्टी बाँध कर आज मन में अवश्य सोच रही होगी -  निर्भया हम शर्मिन्दा हैं..तेरा एक कातिल जिन्दा है ! सभी जानते हैं कि इस देश के क़ानून ने ही क्षमा कर दिया उस छठे घृणित अपराधी को जिसने निर्भया पर सबसे ज्यादा दरिन्दगी की थी. उसके बाद सुना गया और अखबारों में भी पढ़ा गया कि इस देश के ही एक मुख्यमंत्री के हाथों उसे दुकान दी गई सिलाई मशीन खरीद कर दी गई और उसका स्वागत करके उसकी ज़िन्दगी को दुबारा से शुरू कराया गया.

किस डील के तहत हो रही थी ये कोशिश?

न्याय का बोझ बड़ा महंगा सौदा होता है. सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर में न्याय का बोझ उठाना आसान काम नहीं. अब अगर बात करें  भारतीय अदालतों की तो भी जगजाहिर है कि हमारे देश में मुकदमेबाजी कितनी महंगी है. और अगर मुक़दमेबाज़ी छोटी अदालत से उठ कर हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे तक पहुंचती है तो खर्च का आकलन करना आसान नहीं होगा.

पहले तो इस दिशा में ध्यान नहीं गया किन्तु पिछले कुछ महीनों से निर्भया के इन चारों घृणित अपराधियों के बचाव के लिए जो कोशिशें की जा रही थीं उनको देख कर अचरज हो रहा था. एक बड़ा प्रश्न सामने आता है कि आखिर क्या मंशा है इसके पीछे? आखिर किस डील के तहत हो रही है ये कोशिश? हमने कर्मा, शोले आदि फ़िल्में देखी हैं और दुनिया भर में ऐसी कई घटनाएं भी पढ़ने और सुनने को मिली हैं कि शातिर घृणित और वहशी अपराधियों को बचा कर उनका दूसरा इस्तेमाल कैसे और क्या क्या होते हैं?  

 

आईसीजे में अपील से खुला मामला 

शायद ध्यान इस तरफ नहीं जाता कि कोई डील चल रही है लेकिन जब एक बस के क्लीनर और खलासियों को बचाने के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में अपील करने की खबर सामने आई तो सारा मामला क्रिस्टल क्लियर हो गया. इतना ही नहीं निर्भया के चारों हैवान गुनहगारों को बचाने के लिए  संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग में भी अपील की गई. इतना आगे तक तो इस देश का कोई अपराधी नहीं गया. ये बस के कंडक्टर और खलासी यहां तक पहुँच गए? साफ़ ज़ाहिर है, कुछ तो नहीं बल्कि बहुत कुछ गड़बड़ है.

 

कुलभूषण जाधव का मामला पुराना नहीं है 

इससे पहले अभी नौ माह ही हुए हैं जब हेग के अंतर्राष्ट्रीय अदालत में भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान में दी गई मौत की सजा के खिलाफ भारत की सुनवाई हुई थी और भारत के सर्वोच्च अधिवक्ताओं में एक हरीश साल्वे ने देशहित में जाधव की फांसी रुकवाने का मुकदमा लड़ने के लिए केवल एक रुपये फीस ली थी. 

वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान की तरफ केस लड़ने वाले एटार्नी जनरल अनवर मन्सूर खान ने 6 करोड़ रुपये का पारिश्रमिक लिया था. वो इन्टरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस है जहां आम मामले नहीं पहुंचते और न ही आम वकील वहां नजर आते हैं. आईसीजे में केस लड़ने वाले वकीलों की फीस करोड़ों में होती है. कौन है वो शख्स जिसने खर्च किये थे करोड़ों रुपये इन चारों अपराधियों के लिये ? और खर्च भी किये तो आखिर किस डील के तहत?

आक्रामकता भी शुद्ध संदेहास्पद है 

आई सी जे की बात या आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुलवाने की बात हो या फिर आठ साल तक अदालत में केस को खींचने की बात हो - एक बात और भी है जो इस पूरी न्यायिक प्रक्रिया के दौरान नज़र आई. इन चारों नारकीय अपराधियों का मुकदमा जिस स्पिरिट से लड़ा गया, जिस आक्रामकता से लड़ा गया वो हैरान करने वाली है.

निचली अदालत से ऊपरी अदालतों तक जिस जोरदार अंदाज़ में इन अपराधियों का मुकदमा लड़ा गया और जो पैसा इसमें खर्च हुआ वो अपने आप में संदेह की एक बड़ी कहानी कहता है. यहां सवाल सबसे बड़ा और बेहद साफ़ है - आखिर क्या थी वो डील जिसमें इन अपराधियों को बचा ले जाने के बाद इनका और इनसे कोई फायदा उठाया जाना था? आखिर क्या हो सकता है इस डील को स्पॉन्सर करने वाली पार्टी का इरादा और कौन है वो चेहरा जो है इसके पीछी? कौन है वो सफेदपोश नकाबपोश?

उम्मीद है कि सरकार ज़ी मीडिया के इस सवाल का जवाब ढूंढने की जहमत ज़रूर उठाएगी क्योंकि शायद उसके बाद एक और बड़ी आपराधिक साजिश का पर्दाफ़ाश हो सके.

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