बेवजह नहीं है मोहन भागवत की 3 बच्चे पैदा करने की सलाह, भारत में दिखने लगा कम जनसंख्या का असर... इन समुदायों पर विलुप्ति का खतरा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत ने जनसंख्या वृद्धि में गिरावट पर चिंता जताते हुए रविवार को कहा कि भारत की कुल प्रजनन दर (TFR) मौजूदा 2.1 के बजाय कम से कम तीन होनी चाहिए. मोहन भागवत जिस मुद्दे की ओर ध्यान दिला रहे हैं वो वाकई गंभीर है. जानिए भारत में किन समुदायों पर इसका असर दिखने भी लगा है.  

Written by - Lalit Mohan Belwal | Last Updated : Dec 1, 2024, 08:48 PM IST
  • जनसंख्या में कमी गंभीर चिंता का विषय
  • क्या होता है टीएफआर में कमी का प्रभाव?
बेवजह नहीं है मोहन भागवत की 3 बच्चे पैदा करने की सलाह, भारत में दिखने लगा कम जनसंख्या का असर... इन समुदायों पर विलुप्ति का खतरा

नई दिल्लीः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत ने जनसंख्या वृद्धि में गिरावट पर चिंता जताते हुए रविवार को कहा कि भारत की कुल प्रजनन दर (TFR) मौजूदा 2.1 के बजाय कम से कम तीन होनी चाहिए. टीएफआर का मतलब एक महिला की ओर से जन्म दिए जाने वाले बच्चों की औसत संख्या से है. 

जनसंख्या में कमी गंभीर चिंता का विषय

नागपुर में 'कठाले कुलसम्मेलन' में उन्होंने परिवारों की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी प्रकाश डाला. उन्होंने कहा, 'जनसंख्या में कमी गंभीर चिंता का विषय है. जनसांख्यिकी अध्ययनों से पता चलता है कि जब किसी समाज की कुल प्रजनन दर 2.1 से नीचे जाती है तो उसके विलुप्त होने का खतरा होता है. इस गिरावट के लिए जरूरी नहीं कि बाहरी खतरे हों. कोई समाज धीरे-धीरे अपने आप ही विलुप्त हो सकता है.'

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के 2021 में जारी आंकड़ों के अनुसार, भारत की टीएफआर 2.2 से घटकर 2 हो गई है, जबकि गर्भनिरोधक इस्तेमाल की दर 54 प्रतिशत से बढ़कर 67 प्रतिशत हो गई है. मोहन भागवत जिस मुद्दे की ओर ध्यान दिला रहे हैं वो वाकई गंभीर है. 

क्या होता है टीएफआर में कमी का प्रभाव? 

दरअसल टीएफआर के कमी का प्रभाव समुदायों पर पड़ता है. खासकर कम जनसंख्या वृद्धि की वजह से छोटे समुदायों पर सांस्कृतिक और भाषाई दबाव बढ़ सकता है. उनकी जन्म दर कम होने से आबादी कम हो सकती है. उनकी संस्कृति और भाषा को बनाए रखना मुश्किल हो जाता है. क्योंकि युवाओं की संख्या कम हो जाती है और वैश्वीकरण या प्रवास आदि की वजह से अगर युवा पीढ़ी अपनी मातृभाषा या संस्कृति को सीखने में रुचि नहीं दिखाती है तो इसके विलुप्त होने का खतरा बढ़ सकता है.

वहीं छोटे समुदाय पर बड़ी भाषाओं और संस्कृतियों का दबाव भी बढ़ जाता है. शिक्षा और मीडिया में प्रमुख भाषाओं का इस्तेमाल होने से छोटी भाषाओं के बोलने वालों के लिए सीखने और संवाद करने के अवसर कम हो जाते हैं. युवा पीढ़ी अक्सर अधिक व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषाओं को अपना लेती है.

अंडमान निकोबार के आदिवासी हैं उदाहरण

वहीं भारत में ही देखा जाए तो अंडमान निकोबार द्वीप समूह के आदिवासी इसका उदाहरण हैं. अंडमान निकोबार द्वीप समूह में रहने वाले ओंगे, जारवा और सेंटिनेलीज आदिवासी समुदायों की जनसंख्या बहुत कम है और उनकी टीएफआर भी काफी कम है. कहा जाता है कि इन पर विलुप्त होने का खतरा है. अंडमान निकोबार एडमिनिस्ट्रेशन की वेबसाइट के मुताबिक, वर्तमान में ओंगे आदिवासियों की संख्या 110 है. इसी तरह जारवा आदिवासियों की जनसंख्या 341 है जबकि सेंटिनेलीज के बारे में काफी कम जानकारी मौजूद है क्योंकि वे किसी भी समूह के संपर्क में नहीं रहते हैं.

हालांकि टीएफआर में कमी संस्कृतियों और भाषाओं के विलुप्त होने की एक वजह हो सकती है, लेकिन कई अन्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वजहें भी इसमें अहम भूमिका निभाती हैं.

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