पटना: देश की लगभग 60 प्रतिशत से अधिक आबादी जिसमें छोटे से बड़े किसान परिवार शामिल हैं उनका प्रमुख आय स्रोत कृषि पर निर्भर करता है. कुछ किसान और समुदाय ऐसे हैं जिन्होंने जल संरक्षण और कृषि के लिए नई तकनीक की इजाद की है.
बिहार में झारखंड से सटे बांका के एक 70 वर्षीय बुजुर्ग किसान अनिरुद्ध प्रसाद सिंह ने पिछले एक दशक के अपने प्रयासों से जल क्रांति के जरिए बांका जिले व उनसे जुड़े क्षेत्रों को सूखा मुक्त कर दिया. वह जेपी आंदोलन से भी जुड़े हुए रहे. लेकिन साल 1976 में वो अपने गांव लौट आए. इसके बाद 1983 में उन्होंने पांच एकड़ जमीन खरीदी. और 2 साल बाद ‘मुक्ति निकेतन’ की स्थापना की. इस संस्था के द्वारा अनिरूद्ध ने किसानों और लोगों के बीच जल संरक्षण के महत्व को फैलाया. इस जागरूकता अभियान को उन्होंने 18 राज्यों में फैलाया. अनिरुद्ध सिंह के प्रयासों को देखते हुए 2008 में ''काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन एंड रूरल टेक्नोलॉजी'' ने जल संरक्षण के लिए मदद की.
उसके बाद अनिरूद्ध जी ने 30 पुराने जल निकायों को वापस से पुनर्जीवित करने, 20 कुओं , 35 फ्लिट सिंचाई मशीनों का निर्माण और 40 हैंडपंप स्थापित करने का जिम्मा उठाया. इसके बाद नाबार्ड और अन्य संस्थानों से जुड़ कर 30 तालाब, 25 चेकडैम और 10 लिट सिंचाई योजना का निर्माण कराया.
उनके इन प्रयासों की वजह से आज जहां बांका जिले के किसान पानी की कमी के चलते एक साल में एक ही फसल उपजा पाता था वहां आज किसान धान और गन्ना दोनों की खेती कर रहे हैं. धान और गन्ना बांका जिले की मुख्य फसल है.
किसानों की माने तो इस साल लगभग 70 फीसदी धान की खेती हुई है. और 30 गांवों के लगभग 1,000 किसानों को इसके जरिए सीधा फायदा हुआ है. वहीं 200 गांवों के कम से कम 10,000 किसानों ने पानी के लिए इस मॉडल को अपनाया है. किसान ही नहीं बांका जिला प्रशासन भी उनके द्वारा लायी गयी इस जल क्रांति की प्रशंसा करते हैं.
कुछ ऐसे ही प्रयासरत किसान व समुदाय
राजस्थान का डूंगरपुर
राजस्थान के डूंगरपुर के गांवों में गर्मियों में पानी की समस्या एक गंभीर मुद्दा है. यह इलाका पथरीला पहाड़ी इलाका है जिसकी वजह से मानसून के मौसम में भी जल संग्रहण नहीं हो पाती है. यहां के निवासी मुख्य रूप से घरेलू कामों और कृषि के लिए बोरवेल पर निर्भर करते हैं. लेकिन बोरवेल से पानी निकालने के लिए सतह से 150 से 300 फीट नीचे तक खुदाई करनी पड़ती है. जिसकी लागत प्रत्येक बोरवेल 40,000 से 50,000 रुपये होती है. जिसका खर्च छोटे किसानों के लिए उठा पाना कठिन हैं. पानी की कमी और मिट्टी की अधिकता की वजह से केवल एक फसल की खेती कर पाते हैं.
लेकिन यहां के किसानों को VMKS संस्था का साथ मिल रहा है. जिससे डूंगरपुर में तालाबों के पास कुओं की पुनर्भरण क्षमता में वृद्धि हुई है और यह अच्छी तरह से सिंचाई के माध्यम से गर्मियों में तीसरी फसल की सिंचाई का समर्थन कर रहा है और गर्मी के महीनों में मनुष्यों और पशुओं के लिए पीने के पानी की उपलब्धता को बढ़ाया जा रहा है.
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश की जीरो घाटी जो कि अपाटनी जनजाति का इलाका है, 5600 फीट की ऊंचाई पर पूर्वी हिमालय की निचली श्रेणियों में स्थित है. यहां के समुदाय खुद ही कृषि व्यवस्था के प्रबंधन और रखरखाव के लिए सामूहिक जिम्मेदारी लेता है. और सभी चैनलों की मरम्मत, सफाई और रखरखाव में योगदान करते हैं. हर साल मार्च में यह समुदाय मल्को त्योहार मनाता है और इसके बाद अपातानी और कृषि कार्यकर्ता संगठन जिन्हें स्थानीय रूप से पतंग के नाम से जाना जाता है. यह समुदाय बांधों की सफाई, चैनलों की मरम्मत, सिंचाई का पानी और चावल की रोपाई की तैयारी के लिए कृषि गतिविधियां शुरू करते हैं.