औरंगजेब ने जुबान खींच ली, आंखें निकाल लीं अब 331 साल बाद सम्मानित होंगे संभाजी राजे

संभाजी राजे का जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर किले पर हुआ. वह शिवाजी महाराज की पहली और प्रिय पत्नी सईबाई के बेटे थे. वह महज दो साल के थे जब उनकी मां की मौत हो गई, जिसके चलते उनकी परवरिश उनकी दादी जीजाबाई ने की. जीजाबाई बेहद स्वाभिमानी और वीर महिला थीं. उन्होंने ही शिवाजी में वीरता के गुण भरे थे. यही वीर संस्कार उन्होंने संभाजी को भी दिए.

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Mar 12, 2020, 03:52 PM IST
    • संभाजी में बगावती तेवर हमेशा रहे. यह गुण तो खैर उन्हें खानदानी तौर पर मिला था
    • 11 मार्च 1689 को उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के उनकी जान ली गई
    • महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी सरकार ने गुरुवार को औरंगाबाद एयरपोर्ट का नाम बदलकर छत्रपति संभाजी महाराज एयरपोर्ट कर दिया
औरंगजेब ने जुबान खींच ली, आंखें निकाल लीं अब 331 साल बाद सम्मानित होंगे संभाजी राजे

मुंबईः कई शहरों, भवनों और सड़कों से होते हुए नाम बदलने का सिलसिला अब महाराष्ट्र जा पहुंचा है. महाराष्ट्र की महा विकास अघाड़ी सरकार ने गुरुवार को औरंगाबाद एयरपोर्ट का नाम बदलकर छत्रपति संभाजी महाराज एयरपोर्ट कर दिया. एक अधिकारी ने बताया कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अध्यक्षता में हुई राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में यह निर्णय किया गया.

इसके अलावा औरंगाबाद शहर का नाम बदलकर संभाजीनगर करने के लिए जिला प्रशासन ने रेलवे और भारतीय डाक सहित विभिन्न विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) हासिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. 

औरंगाबाद जिले का भी बदला जाएगा नाम
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल ने शहर का नाम बदलने की अपनी पार्टी की मांग को पिछले हफ्ते दोहराया था. साथ में शिवसेना ने भी दावा किया था कि पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बाला साहेब ठाकरे 25 साल पहले यह कर चुके हैं. कार्यवाहक कलेक्टर भानूदास पालवे ने कहा कि राज्य सरकार ने औरंगाबाद का नाम बदलने के लिए जिला प्रशासन से रेलवे और डाक विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने को कहा था.

भानूदास पालवे ने कहा, 'मंडलीय आयुक्त के कार्यालय ने हमसे रेलवे और डाक विभाग से एनओसी लेने को कहा है. जिस महान शासक के नाम पर औरंगाबाद एयरपोर्ट को पहचाना जाएगा, जानते हैं उनकी कहानी-

चलिए, औरंगजेब के दरबार में चलते हैं
यूरोप के एक प्रसिद्ध इतिहासकार हुए हैं. नाम है डेनिस किनकैड़. लिखते हैं कि क्रूर बादशाह औरंगजेब के कारिंदे एक सजीले-गठीले युवक को तमाम तरह की यातनाएं दे रहे थे. जुबान खींच ली, शरीर पर भाले चुभाए जा रहे थे लगातार लेकिन उसकी भुजाएं फिर भी फड़क उठती थीं. वह किसी शेर के शावक की तरह जब-तब गुर्रा पड़ता.

 

औरंगजेब उसे देखकर कभी झल्ला पड़ता तो कभी हतप्रभ रह जाता. आखिर उसने कह ही दिया कि मेरे चार बेटों में एक भी तेरे जैसा होता तो सारा हिंदुस्तान कबका मुगल सल्तनत में शामिल होता. 

औरंगजेब ने दिया जान बचाने का मौका
बादशाह के कारिंदों ने उस युवक की फिर पिटाई की. इस बार औरंगजेब थोड़ा नरम हुआ. हुक्म दिया इस्लाम कबूल कर लो, छोड़ दिया. वह युवक रुका और खून भर आई आंखों से इशारा कर कलम-दवात मंगाई. उस पर लिखा आगर बादशाह अपनी बेटी भी दे दे तो भी इस्लाम कबूल नहीं करूंगा. कहते हैं कि औरंगजेब इस बात से इतना चिढ़ गया कि उसने उस युवक को तड़पा-तड़पा कर मारा.

11 मार्च 1689 को उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर के उनकी जान ली गई. शेर का बच्चा यह युवक वाकई शेर का बच्चा ही था. क्षत्रपति शिवाजी महाराज का वीर पुत्र संभाजी राजे. 

छोटी उम्र में ही बने सफल कूटनीतिज्ञ
संभाजी राजे का जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर किले पर हुआ. वह शिवाजी महाराज की पहली और प्रिय पत्नी सईबाई के बेटे थे. वह महज दो साल के थे जब उनकी मां की मौत हो गई, जिसके चलते उनकी परवरिश उनकी दादी जीजाबाई ने की. जीजाबाई बेहद स्वाभिमानी और वीर महिला थीं. उन्होंने ही शिवाजी में वीरता के गुण भरे थे.

यही वीर संस्कार उन्होंने संभाजी को भी दिए. लिहाजा बचपन से ही संभाजी राजनीति और रणनीति की समझ रखने लगे थे. यहां तक वह शिवाजी के अभियानों में भी शामिल होने लगे थे. पुरंदर का किला पुणे से लगभग 50 किलोमीटर दूर है. 

जब बंदी रहे संभाजी राजे
जब संभाजी नौ साल के थे तो पिता शिवाजी महाराज के साथ वह आगरा पहुंचे थे. इस दौरान किसी कारणवश समझौते के तहत उन्हें राजपूत राजा जय सिंह के यहां बंदी के तौर पर रहना पड़ा था. फिर शिवाजी महाराज औरंगज़ेब को चकमा देकर वहां से निकल भागे. उन्होंने लड्डुओं और फलों की टोकरी में संभाजी को लिटाया और खुद कंहार का वेश बनाकर वहां से निकल आए.

संभाजी राजे की जान को ख़तरा देख कर शिवाजी महाराज ने उन्हें अपने रिश्तेदार के घर मथुरा छोड़ दिया. और उनके मरने की अफवाह फैला दी. कुछ दिनों बाद वो महाराष्ट्र सही-सलामत पहुंचे.

कई बार माना गया गैर जिम्मेदार, लेकिन वह वक्त की जरूरत थी
संभाजी में बगावती तेवर हमेशा रहे. यह गुण तो खैर उन्हें खानदानी तौर पर मिला था, क्योंकि शिवाजी महाराज को भी बगावती सुर अपनाना ही पड़ा था. लेकिन संभाजी को काबू में लाने के लिए 1678 में शिवाजी महाराज ने उन्हें पन्हाला किले में कैद कर लिया था. वहां से वह अपनी पत्नी के साथ भाग निकले और मुगलों से जा मिले.

लगभग एक साल तक मुग़लों के साथ रहे. एक दिन उन्हें पता चला कि मुग़ल सरदार दिलेर खान उन्हें गिरफ्तार कर के दिल्ली भेजने की योजना में है तो वह फिर महाराष्ट्र लौट आए. एक बार फिर से उन्हें बंदी बना लिया गया. 

1680 में हुई ताजपोशी, फिर मुगलों को चटाई धूल
अप्रैल 1680 में शिवाजी महाराज की मृत्यु हो गई थी. इस दौरान उनके दूसरे बेटे राजाराम को सिंहासन पर बैठाया गया था. इसके बाद संभाजी राजे ने कुछ शुभचिंतकों के साथ मिल कर पन्हाला के किलेदार की हत्या कर दी और किले पर कब्जा कर लिया. उसके बाद 18 जून 1680 को रायगढ़ का किला भी उन्होंने कब्जा लिया. राजाराम, उनकी पत्नी जानकी और उनकी मां सोयराबाई को गिरफ्तार किया गया.

20 जुलाई 1680 को संभाजी की ताजपोशी हुई. सत्ता में आने के बाद संभाजी राजे ने बुरहानपुर शहर पर हमला किया और मुग़ल सेना के परखच्चे उड़ा दिए. शहर को आग के हवाले कर दिया. इसके बाद से मुगलों से उनकी खुली दुश्मनी रही.

औरंगजेब को चेताया, दक्कन में ही कब्र बन जाएगी
औरंगजेब उनसे बहुत चिढ़ता था. वह येन-केन प्रकारेण संभाजी राजे को कैद करना चाहता था. इसी बीच औरंगजेब का चौथा बेटा अकबर भी बगावती हो गया तो संभाजी राजे ने उसे शरण दे दी. इस दौरान उन्होंने औरंगजेब के लिए एक खत लिखा था. जिसका मजमून था कि हिंदुस्तान की जनता अलग-अलग धर्मों की है. उन सबके ही बादशाह हैं.

वह जो सोच कर दक्कन आए थे, वह मकसद पूरा हो गया है. इसी से संतुष्ट होकर उन्हें दिल्ली लौट जाना चाहिए. एक बार हम और हमारे पिता उनके कब्ज़े से छूट कर दिखा चुके हैं. लेकिन अगर वह यूं ही जिद पर अड़े रहे, तो हमारे कब्ज़े से छूट कर दिल्ली नहीं जा पाएंगे. अगर उनकी यही इच्छा है तो उन्हें दक्कन में ही अपनी कब्र के लिए जगह खोज लेनी चाहिए. 

और फिर संभाजी को मिला धोखा
1687 में मराठा फ़ौज की मुग़लों से एक भयंकर लड़ाई हुई. मराठा जीते जरूर लेकिन कमजोर हो गए. सेनापति और संभाजी के विश्वासपात्र हंबीरराव मोहिते की इस लड़ाई में मौत हो गई. संभाजी राजे के खिलाफ़ षड्यंत्रों का बाज़ार गर्म होने लगा. उनकी जासूसी की जाने लगी. उनके रिश्तेदार शिर्के परिवार की इसमें बड़ी भूमिका थी.

फ़रवरी 1689 में जब संभाजी एक बैठक के लिए संगमेश्वर पहुंचे, तो वहां उनपर घात लगा कर हमला किया गया. मुग़ल सरदार मुकर्रब खान की अगुआई में संभाजी के सभी सरदारों को मार डाला गया. उन्हें और उनके सलाहकार कविकलश को पकड़ कर बहादुरगढ़ ले जाया गया.

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औरंगजेब ने इस्लाम कबूलने का प्रस्ताव दिया
औरंगजेब ने संभाजी के सामने सारे किले औरंगजेब को सौंप कर इस्लाम कबूल करने का प्रस्ताव रखा. जिसे संभाजी ने मानने से साफ इन्कार कर दिया.  इसकी बाद उनकी और कविकलश की प्रताड़ना का लंबा दौर चला. बादशाह ने उनको इस्लाम कबूलने का हुक्म दिया. इंकार करने पर उनको बुरी तरह पीटा गया. दोबारा पूछने पर भी संभाजी ने इंकार ही किया. इस बार उनकी ज़ुबान खींच ली गई. इसके बाद उनको तड़पा-तड़पा कर मार डाला गया. 11 मार्च 1689 को संभाजी की मात्र 32 वर्ष की अवस्था में  हत्या की गई थी. 

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लेकिन संभाजीराजे की बात सच साबित हुई
औरंगजेब ने सोचा था कि संभाजी की मौत के बाद मराठा साम्राज्य खत्म हो जाएगा, लेकिन हुआ इसका उल्टा. संभाजी राजे की मौत ने मराठाओं में एका करने में सहयोग दिया. जो मराठा सरदार बिखरे-बिखरे थे, वो उनकी मौत के बाद एक होकर लड़ने लगे. इसके चलते औरंगज़ेब का दक्कन पर काबिज होने का सपना मरते दम तक नहीं पूरा हो सका.

जैसा कि संभाजी ने कहा था औरंगज़ेब को दक्कन में ही दफन होना पड़ा. यह कहानी किसी मानव में शेर जैसी वीरता की कहानी है. संभाजी को छावा कहा जाता है. यानी शेर का बच्चा. 

 

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