भारत में कब आया था चाइनीज खिलौना? दस्तक देते ही 70-80 फीसदी मार्केट पर किया कब्जा

भारत में खिलौनों का एक समृद्ध और पुराना इतिहास रहा है, जिसमें पारंपरिक लकड़ी के खिलौने और मिट्टी की गुड़िया शामिल हैं. लेकिन एक समय ऐसा आया जब भारतीय बाजार में एक नए तरह के खिलौनों की बाढ़ आ गई, जिसने बच्चों के खेलने के तरीके और स्थानीय उद्योग को पूरी तरह बदल दिया. यह बदलाव वैश्वीकरण के साथ आया.

भारत के बाजार बदलते व्यापार के कारण दुनिया भर के उत्पादों के लिए खुल गए. इसका एक बड़ा उदाहरण खिलौना बाजार था, जहां एक खास देश के खिलौनों ने तेजी से अपनी जगह बना ली. इन खिलौनों की कीमत कम थी और डिजाइन भी आकर्षक, जिसने बच्चों और माता-पिता दोनों को अपनी ओर खींचा.

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भारतीय खिलौना बाजार में एक ऐसा दौर भी आया जब विदेशी खिलौनों का बोलबाला हो गया. इन खिलौनों ने न सिर्फ बच्चों के खेल को बदला, बल्कि स्थानीय खिलौना उद्योग के लिए भी एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी.  

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ये खिलौने अपनी कम कीमत और ढेर सारे आकर्षक डिजाइनों के कारण बहुत जल्दी पॉपुलर हो गए. साथ ही, इन्होंने भारतीय घरों और दुकानों में तेजी से अपनी जगह बना ली.

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हम बात कर रहे हैं चीनी खिलौनों की. भारत में चीनी खिलौनों का आगमन मुख्य रूप से 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद हुआ.

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1991 के आर्थिक सुधारों के बाद, भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया. इससे आयात के नियम आसान हो गए और चीन जैसे देशों से सस्ते उत्पाद भारत आने लगे. खिलौने भी इसका एक बड़ा हिस्सा थे.

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चीन में कम उत्पादन लागत और बड़े पैमाने पर उत्पादन की क्षमता के कारण, चीनी खिलौने भारतीय बाजार में बहुत कम कीमतों पर उपलब्ध होने लगे. उनकी वेरायटी और नए-नए डिजाइन भी भारतीय बच्चों को बहुत पसंद आए.

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कुछ ही सालों में, भारतीय खिलौना दुकानों में 70 से 80 प्रतिशत खिलौने चीनी उत्पादों से भर गए. इससे भारतीय खिलौना निर्माताओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा, क्योंकि वे कीमत और वेरायटीज में मुकाबला नहीं कर पा रहे थे.

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इसने भारत में खिलौना उद्योग के लिए एक बड़ी चुनौती पेश की. हालांकि, हाल के वर्षों में भारत सरकार ने 'वोकल फॉर लोकल' और 'आत्मनिर्भर भारत' जैसी पहलों के माध्यम से स्थानीय खिलौना उद्योग को बढ़ावा देने के लिए कई कदम उठाए हैं.