Chhath Pooja Special: घर से घाट तक छठ महापर्व की छटा

छठ महापर्व सामाजिक और पारिवारिक सम्मिलन का भी मौका होता. देखिए छठ के माहौल का जीवंत वर्णन

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Nov 21, 2020, 08:21 AM IST
  • घाट पर रहा उत्सव का माहौल
  • छठ के गीतों से सजे घाट
  • पटाखे न होने का अफसोस
Chhath Pooja Special: घर से घाट तक छठ महापर्व की छटा

नई दिल्लीः दोपहर के 2 बजे थे. सूर्यदेव अब सिर के ठीक ऊपर से उतर कर पश्चिम दिशा की ओर बढ़ने लगे थे. गांव में यह वह समय था कि आस-पड़ोस की महिलाएं एक-दूसरे के घर में जुटी थीं. एक-एक कर के सबके माहुरी-आलता लगा रही थीं. ए दीदी, माहुरी लगवा लेई, और ए हमरो गोड़ (पैर) रंग देइँ कि मनुहार सुनाई दे जाना उन गीतों के साथ पूरी तरह मिल-जुल जा रहे थे जो छठ माता की महिमा में घाट के पास बड़ी ही तेज़ आवाज में बज रहे थे. 

लड़कों के हिस्से बड़ी जिम्मेदारी

दो-दो, तीन-तीन लड़के बाइक से लगातार घर से घाट,  घाट से हाट( बाजार) और हाट से घर की दौड़ लगा रहे थे. उनके जिम्मे था कि पूजा में एक भी सामान कम न हो जाये.

दुआर से आवाज लगा देते थे, ए अम्मा देखि ला हो सब आ गइल? हां बाबू आ गईल का आश्वासन मिलते ही लड़के दूसरे तुरत-फुरत दूसरे काम में लग जाते, या फिर, अरे बाबू ई त नाही आइल कि टेर सुनते ही दोबारा हाट तक दौड़ लगा देते. लड़कों के जिम्मे घाट पर लाइट लगाना, केले के पत्ते से वंदन वार बनाना और जैसे-जैसे भी हो सके घाट को सुंदर बनाना था. तो घर की बिटिया-पतोहू चढ़ाए के फल धुलना, प्रसाद के पकवान बनाना जैसे काम में जुटी हुईं थीं. 

छठ गीत लग रहे थे सुरीले

यह जैसे कोई फ़िल्म सी चल रही थी और इसके बैकग्राउंड में एक जैसे सुर वाले गीत व्रती महिलाएं खुद ही गा रही थीं. ठेकुआ बनाते हुए जैसे-जैसे हाथ चलते थे ,
चल छठ माई के दुअरिया, छठ मइया पूजाई, काच ही बांस के बाहगियां बहंगी लचकत जाए जैसे गीत भी अपनी धुन पकड़ते जाते थे.

घाट पर बढ़ी रौनक

शाम 4 बजते-बजते घर से घाट तक रौनक ही रौनक और रंग ही रंग थे. अब लड़कों के जिम्मे एक और बड़ा काम था. उन्होंने फलों से भरे दौरे, सुपली, केले के घवद उठा लिए थे और उन्हें घाट तक पहुंचा रहे थे. कलश पर दीप जलाकर हाथों में थामें उनकी माताएं और बहनें आगे-आगे चल रही थीं. सर्दी के शुरुआती दिनों की हल्की ठंड भरी हवा से बचाते हुए चलना उनकी प्राथमिकता थी और उन्होंने इसे बखूबी निभाया.

परम्परा का सुंदर सामंजस्य

घाट पर पहुंचने पर ताल के तल से माटी निकाली गई और वेदी के पास रखकर उनमें चने चढ़ा दिए गए. हल्दी से वेदी को चारों ओर लीप दिया गया. छठी माता का ध्यान करते हुए उनके हाथ जोड़े, सिर नवायें और फिर अस्ताचल गामी सूर्य को नमन करते हुए माताएं-बहनें ताल में उतर गईं.

माताओं ने सूर्यदेव से मांगा वरदान

उनके हाथ में फलों और प्रसाद से भरी सुपली थी जिसके साथ वह सूर्य देव से घर-परिवार, पुत्र-पुत्री, समाज सबके बढ़ने का वरदान मांग रही थी. वह इस समय सूर्य देव को याद दिला रहीं थीं कि कैसे वह हरिश्चंद्र की पत्नी तारा के सहायक बनें, कैसे उन्होंने माता सीता को वनवास में सम्बल  दिया. अक्षय पात्र देकर द्रौपदी की रक्षा की. जैसे सभी सतियों के सत्व और तप के सम्बल बनें, वैसे ही हमारे व्रत के भी  सम्बल बनें.

घाट पर रहा उत्सव का माहौल

एक तरफ पूजा-व्रत का माहौल था तो वहीं दूसरी ओर बच्चों-बड़ों के बीच उत्सव का माहौल था. इनमें वे जवान और कामकाजी लड़के भी शामिल थे जो दिल्ली-नोएडा या पुणे-बेंगलुरु की मल्टीनेशनल कंपनियों में हैं और कई साल बाद घर आये थे. वे भी मौजूद थे जो Corona Lockdown के बाद work from Home कर रहे हैं, और वे भी जिनकी नौकरी इस महामारी में चली गयी.

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थोड़ी देर की झेंप और भटक के बाद सब आपस मे हिल मिल गए, आखिर थे तो बचपन के साथी ही. इसके बाद और बताओ बे क्या हाल हैं से शुरू हुआ सिलसिला भाई, देखना यार, तुम्हारी कम्पनी में कोई जुगाड़ लगे तो बताना तक पहुंचा.

छठ के गीतों से सजे घाट

इस माहौल तक घाट पर बजने वाले गीत भी बदल गए थे. हे छठ मइया कोरोनवा हर ली हों और कइसे जायीं घाट हो, लागल बा लॉकडाउन हो. जैसे गीत ने जगह ले ली थी. हालांकि महिलायें अपनी ही मंथर गति से छठ महिमा गा रही थीं, बड़े बड़े साउंड सिस्टम में भी इसका मुकाबला करने की क्षमता नहीं थी. भोजपुरी गायिका शरदा सिन्हा के   रिकॉर्डिंग गीतों के बजाय गांव की बूढ़ी काकी-चाची के उन गीतों को सुनना प्राचीनता और परंपरा के उस सागर में गोते लगाना है जिसका मौका सौभाग्य से ही मिलता है.

पटाखे न होने का अफसोस

इन सबसे अलग कुछ युवा किशोर समूह अलग ही चिंता में था. अबे यार, पड़ाका मिलबे नहीं किया. फिर उन्होंने अपना बचपन याद किया जो मुश्किल से 4 से 5 साल पहले ही बीता था. यार, पहिले शाम से भिन्नई तक पड़ाका दगाते थे. अब त्योहार में कुछ बचले नाही बा. तब तक एक कोई कुछ पॉलीथिन में ले आया, दीवाली में बचउली रहलीं , ले बजावा हो.. पटाखों का यह तमाशा 10 से 15 मिनट में ही खत्म हो गया और एक बार फिर इधर-उधर की बातें शुरू हो गईं.

उधर घाट पर सबको सिंदूर तिलक लग रहा था. सूर्यदेव अब आकाश में नहीं थे, उनकी लालिमा कुछ बाकी थी. समय था सवा पांच. अखबार पढ़ने वाले बुजुर्ग बाबा ने कहा कि 5 बजकर 21 मिनट पर सूर्यास्त का समय है, तय हुआ कि 10 मिनट और जल में रहना है. 10 मिनट बाद अरघा दिया गया. इस दौरान नाक से केश के बीच तक व्रतियों का सिन्दूर चमक रहा था. कुछ लड़कियां जो शहर चली गईं हैं  सिन्दूर लगाते हुए उन्होंने पहले ही निर्देश दे दिया,  आँटी हमको छोटा ही तिलक लगाइएगा. यह निर्देश सुन कथित आँटी ने एक पल नई लड़कियों को देखा लेकिन फिर खुशी से उनके मन का तिलक लगा दिया.

यह गोधूलि बेला थी. सूर्यदेव अस्त हो चुके थे. संध्या देवी ने अपना चांद-सितारों वाला आँचल पसार दिया. घाट से दौरा सुपली लिए लड़के लौट रहे थे माताएं दीपक लिए आगे चल रही थीं. अब कल ब्रह्ममुहूर्त में दोबारा आना है. माताएं गीत गा रही थीं.  
गंगा जमुनी जल धारा बाढ़े, बाढे हमरो परिवारवा, हे छठी मईया.

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