नई दिल्लीः भारतीय मनीषा और सनातन परंपरा उपदेशक नहीं है, बल्कि वह प्रत्येक सूत्र को पहले स्वयं जीवन में उतारने का दर्शन है. बाबा तुलसी ने मानस रचा तो लोक की शैलियों लोकजीवन के सारे सार को सामने रख दिया. उन्होंने लिखा कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे जे आचरहिं ते नर न घनेरे.
भूखे की भूख, प्यासे की प्यास और दुखिया का दुख वही समझ सकता है, जिसने इन्हें झेला हो. व्रत-त्योहार और अनुष्ठान हमें समाज की इसी परस्पर समभाव वाली परंपरा से जोड़ते हैं. निर्जला एकादशी ऐसा ही अनुष्ठान है, जब मानव समुदाय ज्येष्ठ मास की तपती दुपहरी में खुद प्यास को अनुभव करता है और जल पिलाने के महत्व को समझता है. प्यासे को जल पिलाना यों भी बड़े पुण्य की बात है.
सभी एकादशियों में श्रेष्ठ है निर्जला एकादशी
वर्षभर के जितने भी एकादशी व्रत और अनुष्ठान होते हैं, निर्जला एकादशी उनमें सबसे भीषण लेकिन सबसे श्रेष्ठ और उत्तम फल देने वाली है. इस बार यह 2 जून (मंगलवार) को है. इसे निर्जला, पांडव और भीमसेनी एकादशी भी कहते हैं. इस तिथि पर भगवान विष्णु के लिए व्रत रखा जाता है. मान्यता है कि इस एक दिन के व्रत से सालभर की सभी एकादशियों के बराबर पुण्य फल मिलता है. नाम से स्पष्ट है कि बिना जल पिए रखा जाने वाला अनुष्ठान होने के कारण निर्जला एकादशी कहते हैं.
इसलिए कहते हैं भीमसेनी एकादशी
महाभारत की एक प्रचलित कथा के अनुसार भीम ने एकादशी व्रत के संबंध में वेदव्यास से कहा था मैं एक दिन तो क्या, एक समय भी खाने के बिना नहीं रह सकता हूं, इस वजह से मैं एकादशी व्रत का पुण्य प्राप्त नहीं कर संकूगा.
तब महाऋषि वेदव्यास ने ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की निर्जला एकादशी के बारे में बताया. उन्होंने भीम से कहा कि तुम इस एकादशी का व्रत करो. इस एक व्रत से तुम्हें सालभर की सभी एकादिशियों का पुण्य मिल जाएगा. भीम ने इस एकादशी पर व्रत किया था, इसी वजह से इसे भीमसेनी एकादशी कहते हैं.
प्रकृति से जुड़ाव का पर्व है निर्जला एकादशी
इसदिन भगवान विष्णु की पूजा करने के बाद मिट्टी से बने घड़े, सुराही, जूट या खस का बना हाथ पंखा, अंगौछा, शीतलता प्रदान करने वाले मौसमी फलों के दान का महत्व है. ग्रीष्मऋतु में पर्व होने के कारण इसदिन ऐसे वस्तुओं के दानपुण्य का महत्व है जो प्राकृतिक रूप से शीतलता प्रदान करने वाले हों. मिट्टी के कलश, घड़े, सुराही में जल भरकर दान करने की परंपरा भी है.