Vijayadashmi Special: इतना महान था रावण कि श्रीराम भी हो गए थे कायल

विजय के बाद भी श्रीराम दल में कोई उत्सव नहीं था. देवताओं के वापस चले जाने के बाद शांति छाई थी. विभीषण शोक में थे और राम उन्हें सहारा दे रहे थे. सहसा उन्हें कोई विचार कौंधा जिसे उन्होंने तुरंत लक्ष्मण से कहा. श्रीराम ने उस पल जो कहा वही भारत और भारतीयता का श्रेष्ठ चिह्न है. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Oct 25, 2020, 02:48 PM IST
    • श्रीराम ने की रावण की प्रशंसा
    • लक्ष्मण कोे भेजा रावण से ज्ञान लेने
    • रावण की महानता के कायल थे श्रीराम
Vijayadashmi Special: इतना महान था रावण कि श्रीराम भी हो गए थे कायल

नई दिल्लीः युद्ध समाप्त हो चुका था. रावण भूशायी हुआ, राक्षस सेना कुछ युद्ध भूमि में खेत रही और कुछ उल्टे पांव लंका भाग गई. रामादल की सेना ने भागते राक्षस सैनिकों पर वार नहीं किए और उन्हें जाने दिया. देवता पुष्पवर्षा कर राम-लक्ष्मण की वंदनास्तुति कर अपने-अपने लोक को लौट गए थे. वे अब सुरक्षित थे, उनका कार्य सिद्ध हुआ तो यों भी वहां रुकने का कोई अर्थ तो था नहीं. 

विभीषण को हुआ शोक
समुद्र के पार दोनों ओर अब नीरव ही शेष था. उद्दंड वानर अभी भी जोश में आकर जय श्रीराम-जय श्रीराम का घोष कर देते थे तो शांति टूट जाती थी. इस टूटी शांति की ओर सिर उठाकर जब महाराज विभीषण देखते तो हर बार उन्हें अपनी लंका के वीरों के शव दिख जाया करते थे.

इस विनाश के लिए खुद को जिम्मेदार मानने का बोझ उन्हें ऐसा भारी लगता कि जैसे हिमालय और मैनाक पर्वत मालाओं ने उन्हें दबा दिया है. लिहाजा लंकाधिपति का मुकुट अभी तक वहीं पास ही थाल में सजा रखा था. 

श्रीराम ने रावण को बताया महाविद्वान
अपने मित्र को इस तरह शोक और संशय में देख श्रीराम विजय के बाद भी संयत थे और शिविर में उत्सव जैसा राग नहीं था. भाई लक्ष्मण भी राम के ठीक पीछे हाछ जोड़े खड़े थे. सहसा ही श्री राम ने कहा- हे लक्ष्मण, हे अनुज. जरा आगे तो आओ. अब जो मैं कहता हूं वह ध्यान से सुनो.

त्रिलोक विजयी, महान ब्राह्मण और प्रकांड शिव भक्त रावण युद्ध भूमि में हैं.

वह बाणों से आहत हैं और इस समय भी महादेव-महादेव जप रहे हैं. उनका अहं और अभिमान से उपजे उनके पाप घावों से रिसे रक्त में बह गए. इसलिए इस समय वह केवल ब्राह्मण हैं, महाज्ञानी और महा विद्दान हैं. 

रावण से राजनीति सीखने का दिया आदेश
श्रीराम के अपने बड़े भाई के प्रति यह वचन सुनकर विभीषण को कुछ शांति मिली. हालांकि उनका बोझ अब भी हल्का नहीं हुआ, तब राम ने कहा- हे अनुज, हमने कभी राज-काज नहीं देखा, सिर्फ गुरु से ज्ञान ही लिया, लेकिन सिंहासन का कोई अनुभव नहीं.

दैव का दुर्दांत विधान देखो कि पूज्य पिताजी भी नहीं रहे जो कि हाथ पकड़कर राजनीति की इस जटिल विधा में हमें पारंगत बनाते. इसलिए हे लक्ष्मण अब तुम शीघ्र युद्ध में पड़े उस महात्मा के पास जाओ. उनसे अनुनय करो-विनय करो कि वे हमें राजनीति का कुछ पाठ पढ़ा सकें. 

लक्ष्मण में अब भी था रावण के लिए क्रोध
भैया, यह आप क्या कर रहे हैं? जिन्होंने देवी माता सीता का हरण जैसा अपराध किया, उनसे मैं कैसा ज्ञान ले सकता हूं और वह हमें क्या राजनीति सिखाएंगे, हो सकता है कभी वह त्रिलोक विजेता हुए हों, लेकिन पिछले कई वर्षों से तो उन्होंने कोई अभियान नहीं किया, राज्य भी बस लंका तक सीमित रखा, उनसे क्या राजनीति पढूं?

श्रीराम ने कहा- नहीं अनुज, ऐसा मत कहो, उन्होंने कई वर्षों तक भूमि पर राज्य किया है. बल्कि उन्होंने तो हमारे पूर्वज महाराज अरण्यक और दादा महारज अज के साथ भी युद्ध किया था. दोनों ही युद्ध अनिर्णायक सिद्ध हुए, इसलिए सीमांत व्यवस्था के तहत उन्होंने दक्षिण प्रदेश से इस ओर प्रवेश नहीं किया.

फिर भी तुमने तो देखा ही दंडक वन और यहां से सुदूर बसे सिद्धाश्रम तक महाराज रावण की पहुंच थी. उनके गुप्तचर, भाई खर-दूषण और ताड़का-मारीच जैसे राक्षसों का साम्राज्य था दूर-दूर तक. तो यूं समझो कि इतनी बड़ी व्यवस्था उन्होंने सहज ही तो न बनाई होगी. 

रावण ने विकसित किया था सूचना का अद्भभुत तंत्र
वास्तव में उन्होंने दशानन नाम को सार्थक किया है. धरती की दसों दिशाओं में वह एक बार में ही देख सकते थे. हर ओर की आहट सुन  लेते थे. सूचना तंत्र का इतना विकसित पहलू मैंने किसी राज्य में नहीं देखा. स्वयं अपने प्रतापी साकेत राज्य में भी नहीं. हे अनुज, इसलिए तुम महाज्ञानी रावण के पास जाओ और उनसे ज्ञान प्राप्त करो.

विभीषण यह सब सुन रहे थे. उनकी आंखों से अश्रु धारा बह निकली और इस धार में मन का सारा बोझ बह गया. श्रीराम ने कहा-शोक मत करिए महाराज, यह आपके निमित्त नहीं हुआ है, यह तो कर्म के लेख हैं. महाराज रावण से अब बैर की कोई वजह भी नहीं. इसलिए हे राजन, अब आप मुकुट धारण करें और देवी सीता को मुक्त करने का आदेश दीजिए. 

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