पुराना पापी है चीन, 1958 में खूब मारी थीं गौरेया, फिर ढाई करोड़ लोग भूख से मरे थे

गौरैया को माओ जेडोंग ने ये कहकर मारने का फरमान सुना दिया था कि वह किसानों की मेहनत बेकार कर देती है और सारा अनाज खा जाती है. नतीजा यह हुआ कि इंसानों ने भी बड़ी निर्ममता से उसे ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारा. उसे दौड़ा-दौड़ा कर और थका कर मारा गया.

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Apr 5, 2020, 05:02 PM IST
    • इस अभियान के दो सालों में इस भयंकर पाप का बुरा अंजाम भुगतना पड़ा. 1960 में अनाज की भारी कमी हो गई.
    • लोगों में इस अभियान को इस तरह से फैलाया गया था कि लोगों को गौरैया का कत्ल करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती थी.
पुराना पापी है चीन, 1958 में खूब मारी थीं गौरेया, फिर ढाई करोड़ लोग भूख से मरे थे

नई दिल्लीः चूं-चूं, चींचीं करती गौरेया खेतों-बगीचों में उड़ रही थी. घोसला भी उसका पास के किसी खेत में खड़े एक पेड़ पर था. दोपहर में किसी खेत से थोड़ा अनाज खा लेती और सिंचाई के लगे हुए पानी से प्यास बुझा लेती. सिलसिला चल रहा था. एक साल किसी वजह से फसल कम हुई. कारण जानने के लिए घोड़े दौड़ाए गए तो किसी मूर्ख बुद्धिमान ने बताया कि गौरेया खड़ी फसल के दाने खाती है. बात राजा तक पहुंची तो वह गुस्से से तमतमा उठा. हाथ में उस्तरा लिए बंदर की तरह बोला, गौरेया को मार दो. और गौरेया मार दी गई. 

यह कपोल कथा नहीं 1958 की सच्ची घटना है
यह कोई परी कथा या दादी-नानी की कहानी नहीं है. यह सब असल में घटा है और इसी घरती पर घटा है. भारत का एक पड़ोसी देश है चीन. बात 1958 की है. तब चीन में माओ जेडोंग का राज था. जिसे माओत्सेतुंग कहा जाता है और माओवाद का जनक भी.

इतिहास में कहीं-कहीं वह महान नेता के तौर पर दर्ज है, लेकिन उसकी जीवनी की कई घटनाएं माओ को एक सनकी भी साबित करती है. गौरेया को मारना इन्हीं में से एक है. आरोप था कि वह फसल खा जाती है. फिर खोज-खोज कर गौरेया मारी गई. इसका खामियाजा ढाई करोड़ लोगों को भूखमरी से जान गंवाकर भुगतना पड़ा. यानी चीन पुराना पापी है.

यह वाकया Four Pests Campaign कहलाता है
दरअसल, माओ जेडोंग ने एक अभियान शुरू किया था, जिसे Four Pests Campaign का नाम दिया था. इस अभियान के तहत चार पेस्ट को मारने का फैसला किया गया था. पहला था मच्छर, दूसरा मक्खी, तीसरा चूहा और चौथी थी मासूम गौरैया.

यह तय हुआ कि कौन-कौन से जीव इंसानी जीवन के लिए खतरा हैं. तो सामने आए चार नाम मानते हैं कि मच्छरों ने मलेरिया फैलाया, मक्खियों ने हैजा और चूहों ने प्लेग, इसके बाद गौरेया का नाम लिया गया कि वह अनाज खा जाती है. 

फिर शुरू हुआ खोज-खोज कर मारने का दौर
गौरैया को माओ जेडोंग ने ये कहकर मारने का फरमान सुना दिया था कि वह किसानों की मेहनत बेकार कर देती है और सारा अनाज खा जाती है. मच्छर, मक्खी और चूहे तो नुकसान करने के आदी हैं, इसलिए वह खुद को छुपाने में भी माहिर निकले, लेकिन गौरैया इंसानी बस्ती के ही नजदीक रहती है. वह चाहकर भी खुद को छुपा न सकी.

नतीजा यह हुआ कि इंसानों ने भी बड़ी निर्ममता से उसे ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारा. उसे दौड़ा-दौड़ा कर और थका कर मारा गया. चूहे किसी के हाथ नहीं आते थे और मक्खी-मच्छरों के मारने का कोई फर्क नहीं था. 

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उड़ते-उड़ते थक जाती और जमीन पर आ गिरती गौरैया
उस दौर में यह अभियान जनता के बीच जोर-शोर से फैल गया. लोगों ने इसमें आंदोलन की तरह की सक्रियता दिखाई. लोग भी बर्तन, टिन, ड्रम बजा-बजाकर चिड़ियों को उड़ाते. लोगों की कोशिश यही रहती कि गौरैया किसी भी हालत में बैठने न पाए और उड़ती रहे.

अपने परों को वो गौरैया कब तक चलाती. ऐसे में उड़ते-उड़ते वह इतनी थक जाती कि आसमान से सीधे जमीन पर गिर कर मर जाती. कोई गौरैया बच न जाए, ये पक्का करने के लिए उनके घोंसले ढूंढ़-ढूंढ़ कर उजाड़ दिए गए, जिनमें अंडे थे उन्हें फोड़ दिया गया और अगर किसी घोंसले में चिड़िया के बच्चे मिले तो उन्हें भी क्रूर इंसानों ने मार दिया. 

'हत्यारों'  को मिलता था इनाम
जो शख्स जितनी अधिक गौरैया का कत्ल करता, उसे उतना ही बड़ा इनाम भी मिलता. स्कूल-कॉलेज में होने वाले आयोजनों में गौरैया का कत्ल करने वालों को मेडल मिलते. जो जितनी अधिक गौरैया मारता, उसे उतनी ही अधिक तालियों से नवाजा जाता.

जाहिर सी बात है, लोगों में इस अभियान को इस तरह से फैलाया गया था कि लोगों को गौरैया का कत्ल करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती थी. लोगों कि सिर पर खून सवार था. कुछ भी हो जाए अधिक से अधिक गौरेया मारनी है बस. 

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गौरेया का झुंड पहुंचा बीजिंग, लेकिन मिली मौत
छिपते-छिपाते किसी तरह गौरेया का एक झुंड बीजिंग स्थिति पोलैंड दूतावास में घुस गया. शायद यहां उन्हें लगा होगा कि वह सुरक्षित  रह सकेंगीं. लेकिन अगर गौरेया को समझ आता तो वह जान जाती कि यह उसकी गलती है. कातिल बन चुके चीनी लोगों को दूतावास में घुसने से रोक दिया गया.

इसके बाद उन लोगों ने दूतावास को ही घेर लिया.  पूरे दो दिन तक बड़े-बड़े ड्रम पीटे गए. गौरेया तेज आवाज से डरती है. वह दूतावास की ही छत से इधर-उधर लड़खड़ा कर उड़ती रही. आखिर में सबने दम तोड़ दिया. इसके बाद उन्हें उठाकर बाहर फेंक दिया गया. 

फिर गुस्साई प्रकृति, पड़ा भयंकर अकाल
इस अभियान के दो सालों में इस भयंकर पाप का बुरा अंजाम भुगतना पड़ा. 1960 में अनाज की भारी कमी हो गई. वजह रही कि एक साल धान की पूरी-पूरी फसल में कीड़े लग गए. अगले साल टिड्डियों का भयंकर हमला हो गया. दरअसल गौरेया खेतों में रहती ही इसलिए थी, क्योंकि वह दाने कम ही खाती, लेकिन पौधों में लगने वाले कीड़े उसका खास भोजन हैं.

इसके लिए टिड्डियों से उनकी दुश्मनी है. लेकिन गौरेया तो मर चुकी थी. इसलिए कीड़ों और टिड्डियों की आबादी तेजी से बढ़ी. माओ को जब तक भूल समझ आई. तब तक देर हो चुकी थी. फसलों को बचाने के लिए दवाओं का इस्तेमाल किया जाने लगा,

लेकिन पैदावार घटती ही रही. आगे चलकर इसने एक अकाल का रूप ले लिया, जिसमें करीब 2.5 करोड़ लोग भूखे मारे गए. गौरेया का बदला प्रकृति ने ऐसे लिया था. 

 

 

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