नई दिल्ली: चीन की तानाशाही सरकार एटम बम से भी ज्यादा लोकतंत्र के नाम से डरती है. उसे अपने विरोध में उठने वाली हर आवाज़ लोकतंत्र के समर्थन में बगावत जैसी लगती है. कोरोना संकट की वजह से चीन के भीतर आर्थिक तबाही के हालात हैं, बेरोज़गारी के आंकड़े आसमान पर पहुंच गए हैं. नौकरियां खो चुके नौजवान आवाज़ उठा रहे हैं लेकिन विरोध की हर आवाज़ को कुचल दिया जा रहा है. राष्ट्रपति शी जिनपिंग को लोकतंत्र की आंधी में अपना तंबू उखड़ने का डर सता रहा है. इसी वजह से जिनपिंग ने चीनी जनता को हांगकांग वाला ट्रेलर दिखाया है. कहने को ये हांगकांग का अर्ध-स्वायत्त दर्जा छीनने का कदम है, लेकिन सच ये है कि जिनपिंग ने इससे अपने विरोधियों को चेतावनी दी है. दो टूक संदेश है कि जो भी तानाशाही सरकार को चुनौती देगा उसे कुचल डाला जाएगा.
हांगकांग तो बहाना है, लोकतंत्र समर्थक निशाना हैं
कोरोना संकट की वजह से चीन की अर्थव्यवस्था की हवा निकल चुकी है. एक तिहाई दुनिया में लॉकडाउन के कारण चीनी सामानों की मांग ठप पड़ गई. इसका सीधा असर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पर हुआ. चीन में लाखों छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों बंद हो चुकी है, ये सिलसिला जारी है. ताजा अनुमान के मुताबिक पिछले तीन महीने में ही चीन में बेरोजगारों की तादाद 13 करोड़ तक पहुंच गई है. जिनमें अकेले 5 करोड़ अप्रवासी मजदूर हैं. 1990 के बाद पहली बार चीन में बेरोजगारी की वजह से ऐसा हाहाकार मचा है.
हाल ही में एक चीनीब्रोकरेज फर्म ने बेरोजगारी की दर 20% तक पहुंचने का दावा किया था लेकिन जिनपिंग सरकार इसे सिर्फ 6% बता रही है. दुनिया भर के जानकार इसे सफेद झूठ करार दे रहे हैं. राष्ट्रपति जिनपिंग ने पिछले साल दिसंबर में वादा किया था कि 2020 में चीन की प्रति व्यक्ति आय 2010 के मुकाबले दोगुनी हो जाएगी.लेकिन हालत ये है कि आय बढ़ने की बजाय उल्टे करोड़ों लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं. चीन में 13.8% नौजवान इस वक्त बेरोज़गार हैं.
चीन के युवा अपनी मन की बात को सोशल मीडिया पर जाहिर कर सरकार से जवाब मांगने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन शी जिनपिंग सरकार इन्हें दबा रही है. सोशल मीडिया पर सेंसरशिप को और सख्त कर दिया गया है. कम्युनिस्ट चीन में सरकार की आलोचना करने पर बैन है. इसलिए ऐसा करने वालों पर एक्शन लिया जा रहा है. तानाशाही शासन वाला चीन अपने नागरिकों को अहसास कराना चाहता है कि वो लोकतंत्र के बारे में सपने में भी ना सोचें.
क्रान्ति की आहट से दहशत में चीन सरकार
चीन की तानाशाह सरकार ने जिस साम्यवाद के नाम पर अपने नागरिकों का शोषण किया, अब उसका बुलबुला फूट रहा है. कोरोना के इस संकट काल में इस वक्त दुनिया भर में चीनी सामानों के बहिष्कारों का नया दौर शुरू हो गया है. इसका अंजाम चीन की अर्थव्यवस्था की संपूर्ण तबाही के रूप में सामने आना तय है. इससे चीन में आर्थिक खाई और चौड़ी होगी. अब तक चीन अपने नागरिकों को यही समझा रहा था कि उसकी आर्थिक तरक्की का राज कम्युनिस्ट विचारधारा की नीतियां हैं. लेकिन अगर चीन की अर्थव्यवस्था ढहती है तो उसके लिए लोगों को इस बात पर भरोसा दिलाना मुश्किल होगा. समानता की मांग करनेवाले लोग सड़कों पर उतर सकते हैं.
नतीजा लोकतंत्र समर्थक क्रान्ति के रूप में भी सामने आ सकता है. इसमें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के वे नेता भी शामिल हो सकते हैं जो जिनपिंग के खिलाफ बगावत का मौका तलाश रहे हैं. राष्ट्रपति शी जिनपिंग को इसी वजह से अपनी गद्दी डोलती दिखाई दे रही है. चीन की कम्युनिस्ट सरकार को अंदेशा है कि अगर देश में लोकतांत्रिक आंदोलन की शुरूआत हुई, तो इस बार उसे दबाना आसान नहीं होगा.
चीन के गांवों से शुरू हो सकता है विद्रोह
चीन में शहर और गांव के बीच एक गहरी खाई है. चमकते-दमकते शहरों की तस्वीर के पीछे चीन अपने गांवों की बेइंतहा गरीबी को छिपा लेता है. इससे जुड़े आंकड़ों में वो लंबे समय से घालमेल करता आया है. चीन के शहरों में करीब 43 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है तो वहीं ग्रामीण इलाके के कामगारों की तादाद 30 करोड़ है. लेकिन गांवों में रहने वाले मजदूरों के आंकड़े चीन की सरकार कभी जारी नहीं करती. चीन की सरकार ने गांवों में रहनेवाले लोगों के खेती के लिए अपनी जमीनें दे रखी है. और इसी आधार पर वो दावा करती है कि इन सभी को रोजगार हासिल है. ये दावे सच से कोसों दूर है। हकीकत ये है कि गावों में रहने वाले लोग सिर्फ सरकारी जमीन पर खेती कर अपना पेट नहीं पाल सकते। इसलिए यहां से करोड़ों लोग शहरों की तरफ पलायन कर चुके हैं. लेकिन इनका कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जाता. अगर चीन अपने गांवों के आंकड़े भी शामिल करे तो उसकी अर्थव्यवस्था की विकास दर धड़ाम हो जाएगी। इसकी पोल दुनिया के सामने खुल जाएगी.
इस वक्त गांवों का हाल सबसे ज्यादा बुरा है लेकिन इनकी कोई सुननेवाला नहीं। आर्थिक तौर पर कमजोर हैसियत की वजह से इन लोगों की आवाज़ें लगातार दबाई जा रही हैं. जिससे चीन के ग्रामीण इलाकों में भयंकर असंतोष पैदा हो चुका है. चीन में इसकी वजह से कभी भी क्रांति के हालात पैदा हो सकते हैं.
लोकतंत्र समर्थकों को टैंक से कुचलता है चीन
चीन की सरकार लोकतंत्र की मांग करने वाले अपने ही नागरिकों को टैंक से कुचल चुकी है। 1989 में चीन की तानाशाही सरकार ने हैवानियत का नंगा नाच किया था. 4 जून 1989 को बीजिंग के थियानमेन चौक पर हजारों लोकतंत्र समर्थक छात्र प्रदर्शन कर रहे थे। ये छात्र कम्युनिस्ट पार्टी के उदारवादी नेता हू याओ बैंग की संदिग्ध मौत के खिलाफ विरोध जता रहे थे। इन्हें शक था कि सरकार ने याओ बैंग की हत्या कराई है। इस आंदोलन से चीन की कम्युनिस्ट सरकार भड़क गई। उसने सैन्य कार्रवाई का आदेश दे डाला। जिसके बाद 3 और 4 जून की बीच की रात को प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पहले सेना ने फायरिंग की, फिर टैंक चढ़ा दिया। इसमें कम से कम 3 हजार लोकतंत्र समर्थक छात्र मारे गए. पश्चिमी देशों की कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में ये तादाद 10 हजार तक बताई गई. इसी दौरान सामने आई एक युवा आंदोलनकारी की तस्वीर इतिहास का हिस्सा बन गई। जिसमें वो सेना के टैंकों के सामने अकेला खड़ा होकर उसे चुनौती दे रहा है।
इस नरसंहार से साफ हो गया कि चीन की सरकार लोकतंत्र को अपने लिए कितना बड़ा खतरा मानती है। एक बार फिर चीन दोराहे पर खड़ा है। यहां भ्रष्टाचार से लेकर बेरोजगारी और पलायन के हालात खतरनाक हो चले हैं। जिससे युवाओं का धीरज जवाब दे रहा है। अगर ऐसे में लोकतंत्र के समर्थन में विशाल आंदोलन या क्रांति शुरू हुई तो हैरानी नहीं होगी. अब पूछा जा रहा है कि क्या दोबारा चीन की सरकार लोकतंत्र समर्थकों पर टैंक चलवा देगी ? जवाब मुश्किल है। लेकिन ज्यादातर जानकार मानते हैं कि चीन की सरकार किसी भी हद तक जा सकती है।
चीनी युवाओं का सपना है लोकतंत्र
मंदारिन भाषा में लोकतंत्र को 'मिन्यून' कहते हैं। चीन की नई पीढ़ी के लिए लोकतंत्र एक सपने की तरह है, जिसे वो देख तो सकते हैं लेकिन इसकी चर्चा करना तक यहां गुनाह है।
जिसने भी चीन में लोकतंत्र की मांग की उसे या तो मौत मिली, सलाखों के पीछे की जिंदगी मिली या फिर देश निकाला। 1989 से 11 साल पहले 1978 में यहां लोकतंत्र के समर्थन
में बड़े आंदोलन की शुरूआत हुई थी। तब भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और पलायन की वजह से चीन का हाल-बेहाल था।
इस आंदोलन को दुनिया भर से समर्थन मिला लेकिन चीन कीकम्युनिस्ट सरकार ने इसका दमन कर दिया। आंदोलन को कुछ साल के लिए दबाने में कामयाबी तो मिल गई लेकिन चीनी युवाओं के दिल में लोकतंत्र को लेकर प्यार कम नहीं हुआ. 1989 के थियानमेन चौक नरसंहार से 5 दिन पहले 30 मई को लोकतंत्र समर्थक युवाओं ने, इसी जगह पर लोकतंत्र की देवी की एक विशाल मूर्ति स्थापित की थी. ये मूर्ति 10 फीट ऊंची थी. जब 4 जून 1989 को चीनी सेना इस चौक पर टैंक के साथ पहुंची तो सबसे पहले इसी मूर्ति को निशाना बनाया. भले ही चीन की तानाशाही सरकार ने लोकतंत्र के प्रतीक को कुचल डाला. इसके लिए आवाज़ उठानेवालों को मार डाला लेकिन इससे लोकतंत्र को लेकर उसका डर खत्म नहीं हुआ.
चीन के खिलाफ लोकतांत्रिक देशों का महागठबंधन
चीन ने पारदर्शिता मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कभी तवज्जो नहीं दी. अब इसी तीन मुद्दे पर उसे पूरी दुनिया घेर रही है. अमेरिका से लेकर जापान तक ने अपनी कंपनियों को चीन छोड़ने पर विशेष राहत पैकेज देने तक का ऐलान कर डाला है. टैक्स में कई तरह की रियायतों की भी घोषणा की गई है. वहीं कई देशों ने साफ कर दिया है कि जब तक चीन वुहान से कोरोना वायरस के फैलने की वजह सामने नहीं लाता तब तक उसके साथ कोई रिश्ता रखना मुश्किल होगा. इसका फौरी असर चीन से विदेशी कंपनियों के बोरिया बिस्तर समेटने के रूप में सामने आनेवाला है. इऩमें से कई कंपनियां भारत की तरफ रुख करने की तैयारी में हैं. जिससे चीन में हड़कंप मचा हुआ है.
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अब चीन के सामने दो ही रास्ते रह गए हैं कि या तो वो मानवाधिकार औऱ अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन करे या फिर इससे इनकार करे। चीन ने दूसरा रास्ता चुना है. हांगकांग में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने की टाइमिंग से साफ है कि चीन ताकत के जोर पर लोकतंत्र को कुचलना चाहता है। इसका नतीजा दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों का चीन के खिलाफ बड़े गठबंधन के रूप में सामने आ सकता है। जिसकी अगुवाई अमेरिका और चीन कर सकते हैं।
जिनपिंग का 'वॉरगेम' दांव बेकार जाएगा
चीन की सरकार ने एक साजिश के तहत भारत और अमेरिका के खिलाफ युद्ध का माहौल बनाना शुरू कर दिया है। इस बीच जिनपिंग सरकार ने अपना रक्षा बजट 6.6 % तक बढ़ा
दिया। इसके पीछे उसका मकसद अपने नागरिकों का ध्यान भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और बदहाली के मुद्दों से हटाना है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग को लगता है कि युद्ध के हालात में जनता
सरकार के साथ मजबूती से खड़ी हो जाएगी और असली मुद्दे किनारे हो जाएंगे। जिनपिंग को लगता है कि देशभक्ति के नाम पर जनता बाकी मुद्दे भूल जाएगी। लेकिन ये इतना
आसान नहीं है।
चीन युद्ध का माहौल तो बनाएगा लेकिन वो अमेरिका और भारत जैसे देशों से साझा जंग लड़ने की हालत में नहीं है। इसकी वजह चीन का आर्थिक गणित है। सच तो ये है कि
आनेवाले दिनों में चीन, अमेरिका की तरफ से शुरू ट्रेड वॉर को ही नहीं झेल पाएगा। चीन अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। पिछले साल चीन ने अमेरिका को 452 अरब
डॉलर का निर्यात किया था। अगर अमेरिका चीन के लिए अपना बाजार बंद करता है तो चीन में आर्थिक सूनामी आ सकती है। इससे चीन की अर्थव्यवस्था में 60% की भागीदारी वाले
छोटे और मध्यम उद्योग तबाह हो जाएंगे। चीन पर मौजूदा कर्ज बेतहाशा बढ़ेगा। चीन के ऊपर इस वक्त उसकी जीडीपी का 248% से भी ज्यादा कर्ज है।
अगर फिर भी चीन टकराव के रास्ते पर आगे बढ़ता है तो डर है कि आर्थिक बदहाली से उपजी बगावत से वहां गृहयुद्ध ना भड़क जाए।