नई दिल्ली: हिंदू धर्म के सबसे बड़े धार्मिक पर्व में से एक महाशिवरात्रि मंगलवार को है. देशभर में महाशिवरात्रि (2022) का त्योहार कल यानी 1 मार्च को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाएगा. भारत के अलावा भी कई ऐसे देश हैं, जहां भगवान शिव के ऐसे ऐतिहासिक मंदिर है, जिनका इतिहास सदियों पुराना है. आइए आपको बताते हैं एक ऐसे शिव मंदिर की कहानी जिसे अपनी सीमा में रखने के लिए दो देश आपस में भिड़ गए थे. दोनों देशों यानी कंबोडिया और थाईलैंड के बीच ये लड़ाई इतनी गंभीर हो गई थी कि इसका फैसला अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में हुआ था. आइए जानते हैं कि कहां है ये मंदिर और किस देश को इस लड़ाई में कोर्ट से जीत हासिल हुआ थी. 


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डांगरेक पर्वत श्रृंखला में खामेर वंश के राजाओं ने बनवाया था
दरअसल प्रीह विहार नाम का यह शिव मंदिर छठवीं शताब्दी में डांगरेक पर्वत श्रृंखला में खामेर वंश के राजाओं ने बनवाया था. इस पर्वत श्रृंखला को प्राचीन काल से कंबोडिया और थाईलैंड के बीच प्राकृतिक सीमा माना जाता था. प्राचीन और मध्यकाल तक इस मंदिर को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ क्योंकि देशों की उस सीमाएं उस तरह नहीं निर्धारित थीं जैसी कि आधुनिक युग में हुईं. 


19वीं सदी के अंत दोबारा खोजा गया यह मंदिर
एक वजह यह भी थी कि लंबे समय तक लोगों को यह मालूम भी नहीं था कि यह मंदिर इस पर्वत श्रृंखला में मौजूद है. दरअसल इस मंदिर तक पहुंचने वाला रास्ता बेहद खराब था और यहां तक पहुंचना लोगों के लिए काफी मुश्किल था, यह भी एक कारण है कि लोग इस जगह के बारे में कम जानने लगे थे. 19वीं सदी के अंत में इस मंदिर को एक विदेश व्यक्ति ने दोबारा खोज निकाला. और इसी के बाद भावनात्मक वजहों से थाईलैंड और कंबोडिया में मंदिर को लेकर विवाद शुरू हुआ. 


फ्रांसीसी अधिकारियों ने बनाया था नक्शा, थाईलैंड ने माना, फिर भी चलता रहा विवाद
1904 में सियाम (थाईलैंड का पूर्व नाम) और फ्रेंच शासित कंबोडिया ने मिलकर ज्वाइंट कमीशन बनाया जिसमें दोनों देशों के बीच डांगरेक पर्वत श्रृंखला पर सीमाओं का निर्धारण होना था. साल 1907 में इसके लिए सर्वे का काम शुरू हुआ. फ्रांसीसी अधिकारियों ने इस सीमा बंटवारे का नक्शा कुछ इस अंदाज में बनाया जिससे प्रीह विहार इलाके के सभी मंदिर कंबोडिया में चले गए. सियाम यानी थाईलैंड उस वक्त खाली हाथ रह गया. लेकिन इन मंदिरों को लेकर विवाद चलता रहा. 


1954 में थाईलैंड ने हमला कर कब्जाया
साल 1954 में जब कंबोडिया से फ्रांसीसी सेनाओं ने कब्जा छोड़ा तब थाईलैंड ने हमला कर मंदिर पर कब्जा कर लिया. इस मामले पर नए-नए आजाद हुए कंबोडियो ने विरोध जताया और इंटरनेशन कोर्ट ऑफ जस्टिस को न्याय करने को कहा. मंदिर पर कब्जे का यह मामला इतना गंभीर हो गया था कि दोनों ही देशों में यह बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया. दोनों देशों के राजनयिक संबंध खराब हो गए थे. दोनों ही सरकारों की तरफ से बल के इस्तेमाल की धमकियां दी जा रही थीं.


इंटरनेशनल कोर्ट में किस बात हुई सुनवाई
दिलचस्प रूप से जब यह मामला इंटरनेशनल कोर्ट में शुरू हुआ तब कोर्ट ने मंदिर की सांस्कृतिक विरासत पर सुनवाई नहीं की. कोर्ट का एक मात्र फोकस इस बात पर था कि 1907 में बने नक्शे को सियाम यानी थाईलैंड लंबे समय तक स्वीकार करता आ रहा था. तब एकाएक इस हमले की जरूरत क्या थी? 


कंबोडिया के पक्ष में आया था फैसला
इस केस में थाईलैंड की तरफ से पूर्व ब्रिटिश अटॉर्नी जनरल सर फ्रैंक सोसकिके और कंबोडिया की तरफ से अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री डीन ऐकेसन वकील थे. दोनों दिग्गजों के बीच अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में लंबी जिरह हुई. इस मामले में साल 1962 में फैसला आया था. फैसला स्पष्ट तौर कंबोडिया के पक्ष में आया. साथ ही थाईलैंड को आदेश दिए गए कि वो सभी लूटी हुई संपत्ति वापस कर दे. 


वैश्विक धरोहर है ये मंदिर
इस मंदिर के नाम पर कंबोडिया के प्रीह विहार प्रांत का नाम है. मंदिर भले ही थाईलैंड से नजदीक हो लेकिन अब थाई लोग कंबोडिया का वीजा लेकर ही यहां के दर्शन कर सकते हैं. 7 जुलाई 2008 को इस मंदिर को वैश्विक धरोहर घोषित किया गया. ये मंदिर यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट का हिस्सा है.


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