नई दिल्लीः Baby Girl at Kabul Airport: काबुल से एक तस्वीर आई है. एक नीली बकेट में सात माह की बच्ची पड़ी मिली है. यूं ही लावारिस हाल. वो जार-जार रो रही है. उसके नथुने बारूद की गंध से भरे हैं और गला जहरीले धुएं से चोक है. वह बोल नहीं सकती, लेकिन उसकी निगाहें मां को खोज रही है.


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बच्ची ने एक हाथ से बकेट की किनारी थाम रखी है. उसी उम्मीद से, जैसे वो मां का आंचल थाम लिया करती थी. लेकिन अफसोस, वो जमीन के जिस टुकड़े पर है, वहां उम्मीदें-भरोसा और मानवता तीनों की लाशें पहले ही बिखरी पड़ी हैं, जो बदहवासों के पैरों तले रौंदी जा रही हैं और गोलियों की तड़तड़हाटों के बीच उनकी चीखें हमेशा के लिए दफ्न हो गई हैं.


बच्ची के आंसू कर रहे हैं सवाल
कहते हैं कि सबसे भारी होते हैं सबसे छोटे ताबूत. ये नीली बकेट और भी भारी है. इससे भी भारी है, इस नादान बच्ची का बेबस, असहाय मासूम चेहरा. उसकी चीखें गोलियों और बमों की आवाजों से भी ज्यादा दर्दनाक है. उसकी आंखों के सूख चुखे आंसू हमें धिक्कार रहे हैं, कोस रहे हैं. सवाल कर रहे हैं कि तुम इंसान ही हो न? जमीन पर पैर पटकती बच्ची अफसोस जता रही है कि भला इस दुनिया में वो आई ही क्यों?


वो दुनिया जो नफरतों के सैलाब में नाक तक डूबी हुई है. इसके होंठों पर एक-दूसरे का खून लगा हुआ है. वो पूछ रही है कि तुमने अपने दीन-धर्म की किताबों में क्या यही खून लिखा देखा है? ऐसा क्या है कि जिसने तुम्हें अंधा, पागल और वहशी बना दिया है.


बेबस है सात महीने की बच्ची
सात महीने की बच्ची की ये तस्वीर चीख रही है. पूछ रही है कि क्या कहता है तुम्हारा ईमान? औरतें मर्दों की शिकार हैं यही न, तो आओ! लो, उठा ले चलो मुझे, मैं तुम्हारा सबसे आसान शिकार हूं. नोंच लो मेरा जिस्म और बना लो इस पर अपने वहशी नाखूनों के निशान. खसोट लो मेरे गाल, जहां मेरी मां ने बोसे दिए होंगे और नोंच लो मेरे सिर से बाल जिन्हें अब्बा ने सहला कर पुचकारा होगा.


क्या हुआ जो मैं सिर्फ सात महीने की हूं? तुम्हें इससे क्या? तुम अपनी बंदूके लेकर आओ और अपना जाहिल मकसद पूरा करो. मैं पड़ी हूं यहां, अकेली, बेबस और यहां कोई नहीं है.


बच्ची की ये तस्वीर वक्त के थपेड़े सहते-सहते धुंधली जरूर होगी. लेकिन उसकी सिसकियां हवाओं में दफ्न होंगी. जब भी ये तस्वीर हमारे सामने आएगी इस दुधमुही बच्ची की सूख चुकी आंखे हमसे कहेंगी, मुबारक हो तुमको ये तुम्हारी दुनिया.


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बच्चे कर रहे हैं मर जाने की बातें
जब तक आप इस बच्ची की फोटो पर उफ कर पाते एक और बच्ची का वीडियो कानों में सीसा भर देता है. दस साल की लड़की वीडियो कह रही है कि हम गिने नहीं जाएंगे, क्योंकि हम अफगानिस्तान से हैं. हम इतिहास में धीरे-धीरे दफ्न हो जाएंगे. हम मर जाएंगे. मर जाना... क्या होता है मर जाना? शायद हम पहले ही मर चुके हैं. हां, हम इस तस्वीर को देखने से पहले और वीडियो को सुनने से पहले मर चुके हैं.


अयलान कुर्दी की आई याद
इतिहास के कई पन्ने ऐसी ही मुर्दा खामोशियों से भरे हुए हैं. मैं नाम लूंगा आपको तस्वीर याद आ जाएगी. अयलान कुर्दी. वो साल 2015 का था. उस सुबह दुनिया भर में जब अखबार पहुंचा तो उसके पन्नों से सड़ चुकी मानवता की बू आ रही थी. फ्रंट पेज पर एक चार साल का बच्चा तस्वीर बन कर औंधा पड़ा था. क्यों? क्योंकि वो अशांत तुर्की से शांत ग्रीस की ओर जा रहा था.



लेकिन शांति उसे मौत की गोद में मिली. या यूं कहिए कि आदमखोर दुनिया ने एक बच्चे को निवाला बना लिया.


केविन कार्टर की दर्दनाक तस्वीर
उस तस्वीर को याद कीजिए जिसने उसके फोटोग्राफर को ही मौत दे दी थी. वो साल था 1993. मार्च के महीने में दक्षिण अफ्रीकी फोटोग्राफर केविन कार्टर सूडान में थे. उनके लेंस की नजर थी भूख से तड़प रही एक बच्ची पर और वहीं उस बच्ची से थोड़ी ही दूर पर एक गिद्ध आकर बैठ गया. ये जिंदगी में मौत का सबसे आखिरी सबसे क्रूर रूप था. जहां मौत जिंदगी खत्म होने के इंतजार में पहले ही बैठी थी.


सवाल उठता है कि ऐसी तस्वीरें कितनी हैं, कब तक बनती रहेंगी, ये सिलसिला कैसे रुकेगा? शायद इसका सटीक जवाब न हो, लेकिन ये तय है कि ये तस्वीरें सिर्फ कैमरों में कैद यादें नहीं हैं. ये जलालत है, गाली है और हमारी इंसानियत पर बदनुमा दाग है जो धरती के रहने तक हमारी असलियत का बखान करेंगी.  


हम हमेशा अशांत रहे हैं
खैर, हमारी नफरतों का इतिहास बहुत लंबा है. कोई दौर इससे खाली नहीं है कि जब आदमी ने आदमी की चमड़ी न उधेड़ डाली हो. आंकड़े बताते हैं कि मानव समाज के 3400 सालों के लिखित इतिहास में केवल 268 साल ही शांति वाले रहे हैं. यानी हम धरती वालों ने केवल आठ प्रतिशत समय शांति के साथ गुजारा है.


अब आप सोच रहे होंगे कि मैं तो हिंसा नहीं कर रहा हूं? मैं किसी की हत्या नहीं कर रहा हूं, तो मेरी हिंसा में क्या भूमिका हुई? हम यह महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि हिंसा का माहौल बनाने और किसी के भी साथ हिंसा पर चुप रहने का मतलब भी हिंसा में शामिल होना ही है! ऐसे में बुद्ध भी याद आते हैं, वो कहते हैं कि तुम पाप नहीं कर रहे हो, तुम चुपचाप हो, पाप होते देख रहे हो, तो तुम पापी हो.


हां बुद्ध! हम पापी हैं
हां बुद्ध हां, हम पापी हैं. हम पापी हैं क्योंकि हम अयलान कुर्दी की तस्वीरें चुपचाप देख रहे हैं. क्योंकि हम सीरिया के उस बच्चे की बात सुन रहे हैं, जो कहता है कि उसे मां की याद नहीं आती और वो रो पड़ता है. आज के इस दौर में जिसे हम विकास का दौर कहते हैं, एक बच्चे की यूं रोती हुई तस्वीर, असल में हमारे अंदर बचे हुए राक्षसों की तस्वीर है. ये तस्वीर हमारे जंगलीपन की है. खोखलेपन की है.  


तस्वीरें... क्या होती हैं तस्वीरें? कोई कहता है कि अतीत का आइना होती हैं. यानी कल को जब हम अतीत बन जाएंगे और ये तस्वीर नई नस्लों के सामने आएंगी तो वे हम पर थूक देने से भी गुरेज करेंगी. वे शायद हमें आदम जात मानने से भी इनकार कर देंगीं. हमारी ताऱीफ में लिखेंगी कि हम शायद इंसान ही नहीं थे, हमारी पहचान सिर्फ कट्टरता, नफरत, वहशीपन थी. वो इस पर नाक-भौंह सिकोड़ेंगी और हमारी दिमागी हालत पर लानतें भेजेंगी. हमारे साथ यही होगा, यही होना भी चाहिए, हम इसी लायक हैं.


 



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