केंद्र ने सम्मान दिया, हरियाणा सरकार ने क्यों नहीं? पद्मश्री मिलने के बाद धरने पर 'गूंगा पहलवान', CM ने मुलाकात के लिए बुलाया
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केंद्र ने सम्मान दिया, हरियाणा सरकार ने क्यों नहीं? पद्मश्री मिलने के बाद धरने पर 'गूंगा पहलवान', CM ने मुलाकात के लिए बुलाया

देश के चौथे सबसे बड़े अवॉर्ड 'पद्मश्री अवॉर्ड' को पाकर भी गूंगा पहलवान के नाम से फेमस हरियाणा के वीरेंद्र सिंह हरियाणा सरकार से नाराज दिखाई दे रहे हैं.

केंद्र ने सम्मान दिया, हरियाणा सरकार ने क्यों नहीं? पद्मश्री मिलने के बाद धरने पर 'गूंगा पहलवान', CM ने मुलाकात के लिए बुलाया

सोनू शर्मा/नई दिल्ली: देश के चौथे सबसे बड़े अवॉर्ड 'पद्मश्री अवॉर्ड' को पाकर भी गूंगा पहलवान के नाम से फेमस हरियाणा के वीरेंद्र सिंह हरियाणा सरकार से नाराज दिखाई दे रहे हैं. वीरेंद्र सिंह मूक बधिर पैरा खिलाड़ियों को समान अधिकार देने की मांग को लेकर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के दिल्ली आवास यानि हरियाणा भवन के बाहर धरने पर बैठ गए.

हालांकि, अब मुख्यमंत्री मनोहर लाल उनकी मांगों को मानने पर सहमत हो गए हैं और सीएम खट्टर ने गूंगा पहलवान को मुलाकात के लिए चंडीगढ़ बुलाया है. पहलवान ने लिखा सीएम समान अधिकार की बात करते है तो मैं बात करूंगा नहीं तो चंडीगढ़ में ही सीएम हॉउस के बाहर प्रदर्शन जारी रहेगा. हरियाणा में झज्जर जिले के रहने वाले वीरेंद्र सिंह बोल और सुन नहीं सकते.

वीरेंद्र सिंह ने बुधवार को ट्विटर पर एक पोस्ट साझा की, जिसमें वह अपने पद्मश्री, अर्जुन अवॉर्ड और बाकी अन्य इंटरनेशनल मेडल के साथ हरियाणा भवन के बाहर फुटपाथ पर बैठे हुए हैं. पहलवान वीरेंद्र सिंह ने इस पोस्ट के साथ कैप्शन में लिखा कि 'माननीय मुख्यमंत्री एमएल खट्टर, मैं दिल्ली में हरियाणा भवन में आपके निवास के फुटपाथ पर बैठा हूं और मैं यहां से तब तक नहीं हिलूंगा, जब तक आप मूक बधिर जैसे पैरा खिलाड़ियों को समान अधिकार नहीं देते, जब केंद्र सरकार हमें समान अधिकार देती है तो आप क्यों नहीं?

संघर्ष भरा सफर:

वीरेंद्र का सफर काफी संघर्षपूर्ण रहा है. साल 2013 में स्पोर्ट्स डॉक्यूमेंट्री गूंगा पहलवान में उनके जीवन और संघर्ष को बयां किया गया है. वह जन्म से ही बोल और सुन नहीं सकते थे. लेकिन, उनके पिता अजीत सिंह रिटायर्ड CISF अधिकारी हैं जिनकी उम्र अब 62 साल है और चाचा सुरेंदर सिंह CISF में इंस्पेक्टर हैं जिन्होंने उन्हें रेसलिंग के साथ जोड़ा.

वीरेंद्र ने 10 साल की उम्र में मिट्टी के दंगल में पहलवानी के दांव पेंच सीखने शुरू की. हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मेलों में लगने वाले दंगल में सामान्य पहलवानों के साथ कुश्ती करते करते वीरेंद्र ने ये साबित कर दिया कि अपनी कमजोरी को अपनी ताकत में बदलकर भी सफलता हासिल की जा सकती है.

राष्ट्रीय स्तर पर किया कमाल:                         

साल 2002 में उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला. वर्ल्ड कैडेट रेसलिंग चैंपियनशिप  2002 के नेशनल राउंड्स में उन्होंने गोल्ड जीता है. इस खेल में उनके सामने सामान्य कैटेगरी का खिलाड़ी था. इस जीत से उनका वर्ल्ड चैंपियनशिप के लिए जाना पक्का था. लेकिन उनकी दिव्यांगता को कारण बताते हुए फेडरेशन ने उन्हें आगे खेलने के लिए नहीं भेजा.

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सिर्फ सुनने की क्षमता न होने पर उन्हें चैंपियनशिप से बाहर कर दिया गया. इस भेदभाव ने वीरेंद्र को समझा दिया, कि उन्हें हर दिन ऐसे गलत फैसलों से लड़ना होगा और अपनी अलग पहचान बनानी होगी. इसके बाद उन्होंने मूक और बधिरों की श्रेणी में खेलना शुरू किया. 2005 में वीरेंद्र ने Deaf Olympics में पहला गोल्ड मेडल जीता. वीरेंद्र ने 7 अंतरराष्ट्रीय मेडल जीते, जिसमें तीन गोल्ड मेडल शामिल हैं. अर्जुन पुरस्कार और अब पद्म श्री शामिल है.

ओलंपिक विजेता जैसी पहचान कब:

आपको बता दें कि फिलहाल वो बतौर जूनियर कोच 28,000 रुपये की नौकरी कर रहे हैं. वीरेंद्र को मलाल है कि उनके जैसे खिलाड़ियों को ओलंपिक विजेताओं जैसा सम्मान और पहचान नहीं मिलती. 2016 में केंद्र सरकार ने डेफलिंपिक्स को पैरा ओलंपिक खेलों के बराबर दर्जा दिया है उसके बाद से ही इस श्रेणी में खेलने वाले खिलाड़ियों को नकद ईनाम राशि मिलने लगी है.

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