America Iran Relation: कभी ईरान अमेरिका का जिगरी दोस्त था, और अमेरिका ने ही उसे न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी दी थी. लेकिन ऐसा क्या हुआ कि अमेरिका और ईरान आपस में कट्टर दुश्मन बन गए, और ईरान ने अमेरिकी दूतावास पर हमला कर उसके 44 नागरिकों को बंधक बना लिया. ईरान आखिर क्यों चाहता है परमाणु हथियार और इस्राइल को ईरान से किस बात का सताता है डर..तीनों देशों में ताज़ा जंग के क्यों बने हालात ? बता रहे हैं सलाम टीवी, जी जम्मू- कश्मीर के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार तारिक़ फरीदी.
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America- Iran Relation and Israel War: Netanyahu ने दावा किया कि ईरान इस ख़ित्ते के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है. उसे हर हाल में nuclear power बनने से उसे रोकना पड़ेगा., और फिर 13 जून को Israel ने ईरान पर हमला कर दिया, जिसमें nuclear scientists और कई सुरक्षा अधिकारी मारे गए. इस घटना के बाद ही Israel और ईरान के बीच जंग की शुरूआत हो गयी. ईरान इज़रायल पर लगातार भारी पड़ रहा था. ईरान ने उसके defence सिस्टम को पूरी तरह तबाह कर दिया. इसराइल ने दुनिया के सामने अपने Iron dome का जो हव्वा खड़ा किया था ईरान ने उसे भी नेस्तो नाबूद कर दिया. ईरान ने अपने हमले में Mossad का HQ, इस्राइल का Stock Exchange,Telaviv और Haifa जैसे शहरों, और वहां की बहुत सी इमारतों को ज़मींदोज़ कर दिया.
इसराइल पर ईरान की ताबड़तोड़ हमलों और उसका दफा करने में इस्राइल के नाकाम होने के बाद इस जंग में अमेरिका भी कूद गया. अमेरिकाने ईरान की तीन nuclear साइट्स फ़ोरदो, नतांज और इस्फ़हान पर बमबारी कर उसे तबाह करने का दावा किया. दुनिया को लगा कि अब ईरान घुटने टेक देगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उल्टा ईरान ने अमेरिकी हमले का जवाब देने के लिए Qatar में US military base पर हमला कर दिया. इस हमले के साथ ही ईरान और अमेरिका आमने सामने आ गए. दो कट्टर दुश्मन फिर से ज़बरदस्त टकराव की हालत में थे, और इन सब की वजह थी ईरान का nuclear प्रोग्राम.
ईरान और अमेरिका में थी कभी जिगरी दोस्ती
हालांकि, आप ये जान कर हैरान रह जाएँगे कि जो अमेरिका आज ईरान को आतंक का सरग़ना बताता है, कभी उसी अमेरिका ने ईरान को न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी का तोहफ़ा दिया था.1960 के दशक में अमेरिका ने ईरान को परमाणु Reactor गिफ़्ट किया था, जिसका नाम रखा गया था Tehran Research Reactor.जिस ईरान को अमेरिकाआज वो पूरी दुनिया के लिए ख़तरा बताता है, कभी उसी को अपना सबसे क़रीबी दोस्त मानता था. आज अमेरिका जिस ईरानी तेल को ‘ग्लोबल सिक्योरिटी’ का दुश्मन बताता है, वही तेल एक ज़माने में अमेरिका की ताक़त की असली वजह हुआ करता था. 1970 के दौर में अमेरिका ने ईरान को Island of Stability कहा था, जबकि उस दौर में आस-पास के पूरे इलाके में हालात बेकाबू थे.
वो दौर ऐसा था कि ईरान अमेरिका से सबसे ज़्यादा हथियार ख़रीदने वाला मुल्क बन चुका था. यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति तक ईरान के शाही हुक्मरानों को बिना किसी शर्त के सपोर्ट किया करते थे. तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि जो दो मुल्क कभी दोस्त हुआ करते थे, हम निवाला हम पेयाला हुआ करते थे, वो आज एक-दूसरे के दुश्मन बन बैठे?
आख़िर दो दो जिगरी दोस्त अमरीका और ईरान कैसे बन गए इतने कट्टर दुश्मन ?
अमेरिका के साथ ईरान की दुश्मनी का पहला बीज पड़ा 1953 में जब अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी CIA ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ईरान में तख़्तापलट करवा दिया. ईरान के चुने हुए पीएम मोहम्मद मोसद्दिक़ को गद्दी से हटाकर अमरीका ने सत्ता ईरान के शाह रज़ा पहलवी के हाथ में सौंप दी. ये पहला मौक़ा था जब अमरीका ने अम्न के दौर में किसी दूसरे मुल्क में तख़्ता पलट किया था. इस वाक़्ये के बाद इस तरह से दूसरे मुल्कों में तख़्तापलट करवाना अमेरिका की फॉरेन पॉलिसी का हिस्सा बन गया. दरअसल, लव hate की इस थ्रिलर कहानी की शुरूआत होती है 1950 के दशक से.
जब वर्ल्ड वॉर 2 ख़त्म हुआ और दुनिया की जो बड़ी ताक़तें थीं, महाशक्तियां थीं उन्हें दो बड़ी हक़ीक़तों का एहसास हुआ. पहली, Oil equals to Power जिसके पास तेल है, उसी के पास ताक़त है. Oil is a key driver of geopolitical power.दूसरी, Nuclear Weapons equal to Protection जिसके पास न्यूक्लियर हथियार हैं, वही अमन के उसूल तय करेगा. साथ ही nuclear weapon को strategic shields के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा. इन्हीं दो सच्चाइयों को मानते हुए रूस, चीन, फ्रांस, यूके और अमेरिका सबने एक के बाद एक न्यूक्लियर टेस्ट किए और खुद को 'परमाणु ताक़त' घोषित कर दिया. अब इस रेस में एक तरफ था रूस जिसके पास अपना तेल भी था और एटॉमिक हथियार भी, और दूसरी तरफ थे अमेरिका और ब्रिटेन, जो पूरी दुनिया में तेल ढूंढने में लगे हुए थे. यहीं पर इस थ्रिलर में एंट्री होती है ईरान की. अमेरिका को ईरान में अपने दो फ़ायदे नज़र आए. ईरान अमेरिका को ऐसी दो चीजें दे सकता था जिसकी अमेरिका को सख़्त ज़रूरत थी.
कभी अमेरिका के रंग में पूरी तरह रंग चुका था ईरान
पहला था तेल, जिससे US की फ़ैक्ट्रियाँ और आर्मी चल सके. दूसरा, geographically ईरान बहुत इम्पोर्टेंट था यानी ईरान वो मुल्क था जो रूस (USSR) के बिलकुल पास था. अमेरिका को डर था कि अगर उसने जल्दी ही कुछ नहीं किया, तो ईरान के तेल को रूस हथिया लेगा. लिहाज़ा अमेरिका ने ईरान को अपना सबसे करीबी दोस्त बना लिया, और इस दोस्ती का रंग ईरान पर चढ़ने लगा. ईरान अमेरिका के रंग में रंग चुका था. ईरानी शहरों में हॉलीवुड फिल्में चलती थीं, लोग वेस्टर्न कपड़े पहनते थे, और पूरा माहौल किसी अमेरिकन सिटी जैसा लगता था. ईरानी शाह को अमेरिका में रॉयल ट्रीटमेंट मिलता था, लेकिन ये दोस्ती फ़ायदे की बुन्याद पर क़ायम हुई थी. इस दोस्ती की डील भी साफ़ थी. ईरान अमेरिका को सस्ता तेल देगा और बदले में अमेरिका ईरान को कैश, हथियार और न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी देगा. हाँ, वो ही nuclear technology जिसे लेकर अभी 2025 में 13 दिन की ये ख़तरनाक जंग हुई है. यानी आज जो अमेरिका ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम के इतने ख़िलाफ़ है, वही कभी एक ज़माने में उसे न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी दे चुका है.
तो अब सवाल उठता है कि जब अमेरिका और ईरान इतने अच्छे दोस्त थे तो आज जानी दुश्मन क्यों हैं? और जब न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी अमेरिका ने खुद ईरान को दी तो अब वही अमेरिका क्यों ख़िलाफ़ है. वह ईरान से इतना क्यों घबरा रहा है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें ईरान के उस दौर में चलना होगा, जब ईरान का समाज divided था. एक था अमीर ईरान और दूसरा बेहद ग़रीब ईरान. ये कहानी बहुत कड़वी और तल्ख़ है.
ये कहानी शुरू होती है, एक पार्टी से. मैं आपको उस पार्टी के बारे में बताऊँगा लेकिन उससे पहले ईरान के उस दौर के हालात को समझने की कोशिश करते हैं. 1950 के दशक में जब ईरान और अमेरिका करीबी दोस्त थे, तब ईरान दुनिया के सबसे तेज़ी से तरक़्क़ी कर रहे मुल्कों में शामिल था. 1950 से 1960 की दहाई में ऐसा लग रहा था कि ईरान जल्द ही एक मॉडर्न superpower बन जाएगा. ईरान की जीडीपी तेज़ रफ़्तार से बढ़ रही थी. यह लगभग 8–9 फ़ीसद की दर से बढ़ रही थी. ईरान में infrastructure पर ज़ोर शोर से काम हो रहा था. हाईवे बन रहे थे. गगनचुम्बी इमारतें तेहरान की तरक्की की गवाही दे रही थी. तेहरान मिनी अमेरिका बनता जा रहा था. सड़कों पर अमेरिकी कारें फ़र्राटे भर रही थीं. फैशन शोज़, शॉपिंग मॉल्स आम हो चुके थे.
अमेरिकी चमक-दमक में भुला दिए गए ईरान के निम्न मध्यम वर्ग अवाम
ईरान में आया अमेरिकी चमक- दमक फर्जी था. वो हकीकत से कोसों दूर था. ये तरक़्क़ी दरअसल एक show off था. एक Western illusion था, क्योंकि जहां एक तरफ़ ईरान का elite ग्रूप यानी अमीर तबका पार्टीज़ और मॉल्स में मसरूफ़ था. वहीं दूसरी तरफ़ वो तबक़ा जो ईरान के गाँव में था, जो मुल्क की आधी आबादी था, उसके पास बिजली, पानी, सड़क, स्कूल, कालेज, अस्पताल जैसे बुनियादी सहूलियात भी नहीं थी. महंगाई आसमान छू रही थी. Unemployment चरम पे थी और वो ग़रीब तबक़ा दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहा था. आम लोग अपनी बुनयादी जरूरतों के लिए struggle कर रहे थे. जिस ईरान में तेल का ज़ख़ीरा था, उस तेल से होने वाली कमाई western कम्पनीज़ की जेबें भर रही थी.
शाही पार्टी से भड़क गई ईरानी शाह से असंतुष्ट अवाम
फिर साल 1971 के October में आया एक ऐसा मोड़ जिसने ईरान की तारीख़ में अहम किरदार निभाया. हुआ कुछ यूँ कि शाह ऑफ ईरान ने एक पार्टी oraganise की जिसे कहा गया The Party of the Century. ये इतिहास की सबसे महंगी पार्टी मानी जाती है. एक ऐसी पार्टी जिसे दुनिया ने इस से पहले कभी नहीं देखी थी. 62 मुल्कों के heads, PM, president, राजा सब इस पार्टी में बुलाये गए थे, लेकिन इस पार्टी से ईरान की जनता ग़ायब थी. 1971 में इस पार्टी पर खर्च हुआ 100 मिलियन डॉलर यानी लगभग 8000 करोड़ रुपये वो भी आज से 54 साल पहले. मेहमानों का खाना मंगाया गया पेरिस से. यानी फ्रांस से 18,000 kilo खाना इंपोर्ट किया गया, जिसमें से 1000 किलो खाना बर्बाद हुआ.
वहीं, दूसरी तरफ़ ईरान के गाँव में रहने वाले किसान, मजदूर, और वहां का निम्न मध्यम वर्गीय अवाम भूकों मर रही थी. जहाँ एक तरफ दवाइयों की किल्लत थी और कुपोषण से देश के बच्चे जूझ रहे थे, वहीँ मेहमानों को सोने की cutlery के साथ खाना परोसा जा रहा था, और सिल्क के बने tents में मेहमान जश्न मना रहे थे. आम ईरानी राशन के लिए कतारों में लगे थे और मेहमानों को मंहगी शराब परोसी जा रही थी.
ये महज़ एक पार्टी नहीं थी, बल्कि ये ईरान की आम जनता की ग़रीबी के मुँह पर एक झन्नाटेदार तमाचा था. इस तमाचे ने ईरान की अवाम को हिला कर दिया था. इसी तमाचे ने ईरान में एक नई तहरीक और क्रांति को जन्म दिया.1971 की वो पार्टी ईरानियों के दिलों में धीरे-धीरे चिंगारी की तरह सुलग रही थी. मौका मिलते ही लोगों ने बग़ावत करना शुरू कर दिया. दूसरी जानिब फ़्रांस, तुर्की और इराक़ में प्रवासी की ज़िंदगी गुज़ार रहे ईरान के एक नए लीडर आयतुल्लाह रूहुल्लहा ख़ुमैनी ने आठ साल बाद ईरान के तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार को शैतानों की पार्टी बताते हुए रज़ा शाह पहलवी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया. इसके साथ ही जो चिंगारी ईरान के अवाम के दिलों में धीमे- धीमे सुलग रही थी, वो अचानक से शोला बन कर 1979 में फूट पड़ी.
लोग सड़कों पर उतर आए. सरकार के खिलाफ विरोध- प्रदर्शन करने लगे. शाह के ख़िलाफ़ नारे लगाने लगे. आख़िरकार ये बग़ावत इतनी तेज़ हो गई कि शाह ऑफ ईरान को 16 जनवरी 1979 को हुकूमत छोड़नी पड़ी और मुल्क छोड़कर भागना पड़ा.
रज़ा शाह पहलवी के बाद आयतुल्लाह खुमैनी बन गए सत्ता का केंद्र बिंदु
रज़ा शाह पहलवी के मुल्क छोड़ने और सत्ता से बेदखल होने का बाद 1 फ़रवरी 1979 को ईरान के सुप्रीम लीडर के तौर पर आयतोल्लाह ख़ुमैनी ईरान लौटे. तेहरान में उनके इस्तक़बाल के लिए 50 लाख लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. इसी revolution को Islamic Revolution of Iraan के नाम से जाना गया. 1979 की क्रान्ति के बाद एक नया ईरान पैदा हो चुका था.
आयातुल्लाह खुमैनी ने आते ही ऐसे कई फैसले लिए,जिसने अमेरिका और ईरान के रिश्ते को हमेशा के लिए बदल दिया. एक रेफ़ेरेंडम के ज़रिए 1 अप्रैल 1979 में ईरान को एक इस्लामी जम्हूरियत घोषित कर दिया गया और फिर ईरान आधिकारिक तौर पर एक इस्लामिक रिपब्लिक बन गया. इस तहरीक के बाद सबसे पहला काम जो हुआ वो था लोकतंत्र यानी democracy को खत्म करना. शाह की सत्ता पूरी तरह से खत्म कर दी गई. अब ईरान में आया शरिया क़ानून. अब यहाँ देश के संप्रभुता यानी परम सत्ता का केंद्र बिंदु सिर्फ एक आदमी रह गया था, वो था आयतुल्लाह खुमैनी. कल तक जिस ईरान पर अमेरिका का प्रभाव था. सरकार उससे पूछे बिना कोई छोटे- मोटे भी फैसले नहीं लेती थी, वही ईरान अब अचानक से अमेरिका के खिलाफ सीना तान कर खड़ा हो गया था.
अमेरिकी दूतावास पर ईरान के हमले और बंधक संकट ने दोनों देशों में बो दिया दुश्मनी का बीज
फिर एक ऐसा वाक़या हुआ जिसने न सिर्फ़ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया और वो था तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमला. तारीख़ थी 4 नवंबर 1979. ईरानी स्टूडेंट्स ने अमेरिकी एंबेसी पर धावा बोल दिया. ईरान में 52 अमेरिकी नागरिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया. ये दुनिया के सबसे लंबे 'Hostage Crisis' के नाम से जाना जाता है. कहा तो ये भी जाता है कि इस हमले को आयतुल्लाह खुमैनी की हिमायत हासिल थी. ये सिर्फ हमला नहीं था, बल्कि अमेरिका के ख़िलाफ़ सीधे तौर पर जंग का ऐलान था. आयतुल्लाह खुमैनी ने अब कोई पर्दा नहीं रखा था. अमेरिका को खुलेआम एक नया नाम दे दिया 'शैताने बुज़ुर्गयानी' यानी महाशैतान (The Great Devil).
ये सिर्फ़ एक स्टेटमेंट नहीं था, बल्कि ये एक तरह से अमेरिका के खिलाफ ऐलान-ए-जंग था. अब अमेरिका ईरान का दुश्मन नंबर 1 था. यहीं से शुरू हुआ वो टकराव, वो दुश्मनी जो आज तक जारी है. इस LOVE HATE relationship से LOVE ख़त्म हो गया और रह गया सिर्फ़ HATE और सिर्फ़ HATE.
अमेरिका ने ईरान- ईराक को आपस में भिड़ा दिया, जिसने परमाणु हथियारों के लिए ईरान को किया मजबूर
इस बीच ईरान में आए इंक़ेलाब और तख़्तापलट से इराक़ के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को भी अपने ख़िलाफ़ बग़ावत का डर सताने लगा, क्योंकि इराक़ में भी आयतुल्लाह ख़ुमैनी के बड़ी तादाद में समर्थक थे और सद्दाम हुसैन की हुकूमत से नाख़ुश थे.1980 में सद्दाम हुसैन के अंदर के डर और अमेरिका की शह पर इराक़ को ईरान पर हमला करने के लिए मजबूर कर दिया गया. ईरान और इराक़ के बीच आठ साल तक ख़ूनी जंग चली. इस जंग में अमरीका तो सद्दाम हुसैन के साथ था ही. सोवियत यूनियन ने भी सद्दाम हुसैन की मदद की थी. ये जंग एक समझौते के साथ ख़त्म हुई. जंग में कम से कम पांच लाख ईरानी और इराक़ी मारे गए थे. कहा जाता है कि इराक़ ने ईरान में केमिकल वेपन का इस्तेमाल भी किया था और ईरान में इसका असर लंबे वक़्त तक दिखा.
जंग के बीच ही साल 1984 में ईरान ने फिर से अपने साइंटिस्ट्स को बुलाया और न्यूक्लियर एनर्जी पर काम शुरू किया गया. 1989 आते-आते ये रिसर्च nuclear bomb बनाने तक पहुंच गई. ईरान को अब एक बात साफ़ समझ आ चुकी थी कि अगर इस दुनिया में टिके रहना है. मध्य पूर्व के इस इस ख़ित्ते में अगर अपना दबदबा बनाए रखना है तो उसे Nuclear Power बनना होगा, क्योंकि 80 की दहाई में आठ साल तक वो इराक़ से जंग लड़ चुका था. तब सद्दाम हुसैन को अमेरिका का वरदहस्त हासिल था.
ईरान ने न्यूक्लियर प्रोग्राम पर जो काम करना शुरू किया था उसे साल 2002 तक छुपाता रहा. इधर, अमरीका का भी इस इलाक़े में equation बदला इसलिए बहुत से बदलाव देखने को मिले. अमरीका ने न सिर्फ़ सद्दाम हुसैन को सपोर्ट करना बंद किया बल्कि इराक़ में हमले की तैयारी शुरू कर दी थी. कहा जाता है कि अमरीका के इस फ़ैसले का अंजाम ईरान को मिले अहम स्ट्रैटिजिक फ़ायदे से हुआ. हालांकि ईरान, अमरीकी प्रेसीडेंट जॉर्ज डब्ल्यू बुश के मशहूर टर्म 'एक्सिस ऑफ इवल' में शामिल हो गया था. ईरान में न्यूक्लियर प्रोग्राम चल रहा था और फिर Sanctions और Deal का खेल भी शुरू हो गया. अब अमेरिका ईरान का खुला दुश्मन था.
अमेरिका की ईरान पर प्रतिबन्ध लगाकर उसे बर्बाद करने की कोशिश
1995 से लेकर साल 2010 तक अमेरिका और UN ने ईरान पर इतने Sanctions (प्रतिबन्ध) लगाए कि महंगाई 40 फ़ीसद से ऊपर पहुंच गई. ईरान न तेल बेच सकता था, न ही ज़रूरी सामान किसी दूसरे मुल्क से आयात कर सकता था. लेकिन 2013 में जब हसन रूहानी फिर से चुने गए तो आलमी बिरादरी ने न्यूक्लियर प्रोग्राम को लेकर फिर से बात शुरू की. बरसों की दुश्मनी के बीच प्रेसिडेंट ओबामा 2015 में Joint Comprehensive Plan of Action पर पहुँचे, और इसे इसे एक बड़ी सियासी कामयाबी के तौर पर देखा गया. ऐसा लग रहा था कि अब ईरान और अमेरिका के रिश्तों पर पड़ी बर्फ़ पिघलने लगी है, लेकिन इस बीच अमेरिका में चुनाव हुए तो ओबामा हार गए और ट्रंप सत्ता में आ गए. 2018 में ट्रंप ने एकतरफ़ा फ़ैसला लेते हुए इस समझौते को रद्द कर दिया. ट्रंप इंतेज़ामिया ने ईरान पर नए sanctions लगा दिए. यहां तक कि ट्रंप ने दुनिया के देशों को धमकी देते हुए कहा कि ईरान से कारोबार जो करेगा वो अमेरीका से कारोबारी रिश्ते नहीं रख पाएगा. इसका नतीजा ये हुआ कि ईरान पर अमेरीका और यूरोप में खुलकर इख़्तेलाफ़ात सामने आए. यूरोपीयन यूनियन ने ईरान के साथ हुई nuclear डील को बचाने की कोशिश की लेकिन ट्रंप नहीं माने और ईरान पर प्रतिबन्ध जारी रहा.
अमेरिकी हमले में कासिम सुलेमानी की मौत से ईरान को धक्का
ईरानी इंक़ेलाब के बाद पिछली चार दहाईयों में ईरान और अमरीका के बीच अदावतों के कई नाज़ुक मोड़ आए हैं. 2020 में ईरानी जनरल क़ासिम सुलेमानी की अमरीकी हवाई हमले में मौत के बाद दोनों मुल्कों की दुश्मनी एक नए मुक़ाम पर पहुँच गई. क़ासिम सुलेमानी की मौत के बाद ईरान ने अमेरिकी फ़ौज और पेंटागन को दहशतगर्द तंज़ीम क़रार दे दिया. इस ऐलान के बाद ईरान ने इराक़ में मौजूद दो अमेरिकी बेस पर हमला करके इसे क़ासिम सुलेमानी की मौत का बदला क़रार दिया.
क़ासिम सुलेमानी का जाना ईरान के लिए बहुत बड़ा धक्का था. कहा जाता था कि Persian gulf में बैठा ईरान का कासिम सुलेमानी, इराक़, सीरिया और लेबनान जैसे अरब मुल्कों को कंट्रोल करता था. क़ासिम सुलेमानी ने एक बार कहा था कि आप तेहरान में टैक्सी पर बैठिए और बेरूत में उतरिए. यानी तेहरान से बेरूत जाने के लिए इराक़ और सीरिया से गुज़रना पड़ता है.
क़ासिम सुलेमानी की मौत के बाद इन देशों में हालात तेज़ी से बदले और फिर 2023 में एक बड़ी घटना हुई जिसने बहुत तबाही मचाई. 7अक्टूबर 2023 को इज़रायल पर हमास का हमला हुआ. इस हमले का इल्ज़ाम अमेरिका और इज़रायल ने ईरान और उसके Axis of Resistance पर लगाया. इज़रायल अपने देश पर हुए हमले के इंतक़ाम की आग में जल रहा था. इज़रायल ने एक के बाद एक ऐसे जवाबी हमले किए जिसने हमास और हिज़बुल्लाह की कमर तोड़ दी. न हिजबुल्लाह के सरबराह हसन नसरुल्लाह ज़िंदा रहे और न हमास के इस्माइल हानिया और न ही यहि्या सिनवार. इन सभी को इस्राइल ने मार गिराया. इस्राइल ने हमास के इस्माइल हानिया की हत्या उस वक़्त की जब वो ईरान में एक दौरे पर थे.
इज़रायल यहीं ख़ामोश नहीं बैठा बल्कि सीरिया में ईरानी समर्थक बशर-अल-असद का तख़्त भी पलट कर रख दिया. इस का नतीजा ये हुआ कि अब ईरान ने लेबनान, सीरिया और ग़ाज़ा में अपना कंट्रोल पूरी तरह से खो दिया. यमन में हूती लड़ाके भी कमज़ोर पड़ गए और इराक़ की शिया मिलिशिया भी ख़ामोश बैठ गई. ईरान अब अकेला, कमज़ोर और अलग-थलग पड़ चुका था.
मजबूत ईरान से इस्राइल को अपने वजूद पर महसूस होता है बड़ा खतरा
इधर ट्रंप ने दोबारा अमेरिका की बागडोर संभाल ली थी. अमेरिका में ईरान से न्यूक्लियर डील पर बातचीत की बंद पड़ी फ़ाइलें फिर से खुलने लगीं. दोनो देशों के बीच 5 दौर की बातचीत हो भी चुकी थी. छठें दौर की बातचीत से पहले ट्रंप ने बयान भी दिया था कि ईरान के साथ न्यूक्लियर मामले पर समझौता अगले कुछ हफ्तों में हो सकता है. उन्होंने इजरायली पीएम बेंजामिन नेतन्याहू को बताया भी था कि दोनों फ़रीक़ मुद्दे का हल करने के काफी करीब हैं. ट्रंप ने अपने बयान में यह भी कहा था कि वह खुद इंसपेक्शन के लिए ईरान जाना चाहेंगे. लेकिन छठें दौर की बातचीत से ठीक पहले इज़रायल ने 13 और 14 जून की दरमियानी रात ये कहते हुए ईरान पर हमला किया कि ईरान न्यूक्लियर बम बनाने के बिलकुल क़रीब पहुंच गया है. हमले से पहले दावा किया गया कि ईरान के पास अभी इतना यूरेनियम है कि वो 8 से 9 बम किसी भी वक़्त बना सकता है. इसलिए इस्राइल को ईरान से ख़तरा बहुत बढ़ गया है. Netanyahu ये दावा पहली बार नहीं कर रहे थे. 1990 के दशक से वो ये कहते आ रहे हैं कि ईरान किसी भी वक्त Nuclear Power बन सकता है और इसी की आड़ ले कर Israel ने ईरान पर हमला कर दिया.
ईरान ने भी इस हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया. ईरानी हमलों ने दुनिया को चौंका दिया. ईरानी मिसाइलें, इराक़ में लगे अमेरिकी एयर डिफ़ेस सिस्टम और जॉर्डन के एयर डिफेंस सिस्टम को चकमा देकर इज़रायल तक पहुंच रही थीं. ईरानी मिसाइलें इज़रायल के ऐरो-1,ऐरो-2,ऐरो-3, डेविड स्लिंग और आयरन डोम जैसे हाईली एडवांस एयर डिफेंस सिस्टम को भेद कर अपने टॉर्गेट को हिट कर रही थीं. जंग को एक ही हफ़्ता हुआ कि इज़रायल ने अमेरिका पर दबाव डाल दिया कि वो जंग में शामिल हो. इज़रायल का दावा था कि वो ईरान की न्यूक्लियर साइट को तबाह नहीं कर पाएगा. इसके लिए अमेरिकी बंकर बस्टर बम की ज़रूरत पड़ेगी. और आख़िरकर तक़रीबन 4 दिनों की हां और न की उलझी हुई ट्रंप की गुत्थी सुलझ गई, और 22 जून की रात ईरान पर अमेरिका का हमला हो गया. हमले के बाद ईरान ने क़तर में मौजूद अमेरिकी सेंट्रल कमांड के बेस पर जवाबी हमला किया. ईरान के पलटवार के कुछ ही घंटों बाद ट्रंप ने इज़रायल-ईरान के बीच सीज़फ़ायर का ऐलान कर दिया. 12 दिनों से जारी जंग थम तो गई, लेकिन कई जलते हुए सवाल और सुलगते हुए दावे अपने पीछे छोड़ गई है.
क्या छट गए हैं जंग के बादल ?
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जंगबंदी के बाद की ख़ामोशी क्या किसी बड़े तूफ़ान का पेश ख़ेमा है? जिस न्यूक्लियर इनरिचमेंट को मुद्दा बनाकर ईरान पर हमला किया गया था क्या उसमें अमेरिका और इज़रायल को कामयाबी मिली? क्या वाक़ई ईरान का न्यूक्लियर प्रोग्राम तबाह हो चुका है, और बरसों पीछे पहुंच चुका है. क्योंकि ट्रंप की बातें, नेतन्याहू के दावे, मीडिया की ख़बरें, इंटेलिजेंस की रिपोर्ट और ईरान के इरादे अलग-अलग क़िस्से कह रहे हैं. हालांकि, ये तय है कि middle east में जो ये आग लगी है, इसकी लपटें दुनिया भर को झुलसाने के लिए काफ़ी है, क्योंकि ईरान के पास तुरुप का इक्का है Straits of Hormuz भी है, जिसे रोक कर वो ग्लोबल economy को डेंट तो लगा ही सकता है. ईरान से होकर गुजरने वाल ये वो समुद्री रास्ता है, जिससे होकर मध्यपूर्व का 80 फीसदी कच्चा तेल दुनिया के देशों में भेजा जाता है.
इस जंग के बाद अरब वर्ल्ड में खुद के मज़बूत होने का ख़ौफ़ भी ईरान बखूबी बैठा चुका है. साथ ही इस जंग ने बहुतों को आइना दिखाने का भी काम किया है. ख़ुशफ़हमियों और ग़लतफ़हमियों की दीवारें टूट गई हैं. हमेशा की तरह दुनिया के तमाम कायदे क़ानून को ताक पर रख कर मनमानी करने वाले अमेरिका की फ़ितरत एक बार फिर जग ज़ाहिर हो गई है. ईरान ने दुनिया को बता दिया है कि जंग में अपने दुश्मन को कमजोर आंकना सबसे बड़ी ग़लती होती है, जो ग़लती Israel ने की है. ये शोले फ़िलहाल तो धीमे पड़ गए हैं, लेकिन ये कब भड़क जाएँ पता नहीं, क्यूँकि शोला भड़कने के लिए इस इलाके में तेल के असीमित भण्डार हमेशा मौजूद रहेंगे!
:- तारिक़ फरीदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार, Salam TV, Zee JK & Ladakh के संपादक और मशहूर डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकर हैं.
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