Birthday Special: असेंबली में बम गिराने का मक़सद किसी को मारना नहीं था: भगत सिंह
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Birthday Special: असेंबली में बम गिराने का मक़सद किसी को मारना नहीं था: भगत सिंह

14 साल की उम्र में भगत सिंह के इश्तेहार उनके गाँव में छपने लगे थे जब उन्होंने सरकारी स्कूलों की किताबें और कपड़े जला दिए थे. 

भगत सिंह की फाइल फोटो

नई दिल्ली: नदीम अहमद: 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की असेंबली में जिस मुजाहिदे आज़ादी ने बम फेंक कर अंग्रेज़ी हुकूमत को अपनी आवाज़ पहुंचाई थी आज उसी अज़ीम शख़्स शहीदे आज़म भगत सिंह का यौमे पैदाईश है. ये और बात है कि मौजूदा वक़्त में हमारे मुल्क के नौजवानों की दिलचस्पी तारीख़ को पढ़ने और समझने में ज़्यादा न हो लेकिन हम और हमारा मुल्क ऐसे जांबाज़ों की क़ुर्बानियों को कभी फ़रामोश नहीं कर सकते. उनकी क़ुर्बानियों और मुल्क से बेशुमार मुहब्बत के लिए अपनी जान तक दे देना ऐसे मुजाहिदे आज़ादी को हम याद करके और उनके जज़्बे को अपने दिलों में उतार कर की ही उन्हें सच्ची खिराजे अक़ीदत पेश कर सकते हैं.

शहीद भगत सिंह का सफ़र
आज ही के दिन यानी 28 सितंबर 1907 को शहीद-ए-आजम भगत सिंह लायलपुर के बंगा में (जो अब पाकिस्तान में है) पैदा हुए थे. ग़ुलाम हिंदुस्तान में पैदा हुए भगत सिंह ने बचपन से ही मुल्क को अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ाद कराने का ख़्वाब देखा था. कम उम्र में ही इस आज़ादी के लिए जद्दोजहद किया और एक दिन ऐसा भी आया के अंग्रेज़ी हुकूमत की बुनियाद को हिलाकर रख दिया और ख़ुद हँसते-हँसते फांसी का फंदा चूम लिया. भगत सिंह ने शहादत ज़रूर क़ुबूल कर ली लेकिन अपने जज़बे और मुल्क के तईं क़ुर्बान होने का जज़्बा ऐसा छोड़ा जो आज तक हिंदुस्तानी नौजवानों को मुतास्सिर करता है.

14 साल की उम्र में भगत सिंह के इश्तेहार उनके गाँव में छपने लगे थे जब उन्होंने सरकारी स्कूलों की किताबें और कपड़े जला दिए थे. आज़ादी की मुहब्बत और जज़्बा उनको अपने ही घर से मिला था जहाँ आज़ादी के दीवानों की लम्बी क़तार थी. हर हिंदुस्तानी की तरह भगत सिंह का अहले ख़ाना भी आज़ादी का पैरोकार था.उनके दो चाचा ग़दर पार्टी के रुक्न थे.

शहीद भगत सिंह को नहीं मिला हक़!
ये भी जानना ज़रूरी है के भगत सिंह ने सिर्फ़ 23 साल की उम्र में मुल्क के लिए अपनी जान दे दी लेकिन उस वक़्त की हुकूमतों ने दोस्सरे मुजाहिदे आज़ादी की तरह उन्हें पहले सफ़ में जगह नहीं दी जहाँ उन्हें मिलनी चाहिए थी. ये इलज़ाम ख़ासकर महात्मा गाँधी और मुल्क के पहले वज़ीरे आज़म जवाहरलाल नेहरू पर लगता है के इन्होने भगत सिंह के साथ इंसाफ़ नहीं किया. भगत सिंह इस सफ़ में अकेले नहीं है बल्कि एक और नाम है नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जिन्हे एक बेहतर मक़ाम नहीं मिल सका.

भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस एक ही नज़रिये की सोच रखते थे जबकि नेहरू और गाँधी जी का मानना इनसे जुदा था. नेहरू और गाँधी जी पर यह भी इलज़ाम लगता है के अगर नेहरू और गाँधी जी चाहते तो भगत सिंह को फांसी से बचा लेते. जबकि नेहरू पर ये इलज़ाम लगता है के उन्होंने तारीख़ के सफ्हों में अपने लिए वो जगह तो बना लिए जो भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस को मिलना चाहिए था.

असेंबली में क्यों फेका था बम
भगत सिंह को सरमायदारों के तईं इस्तेहसाल की पालिसी पसंद नहीं थी. उस वक़्त में अंग्रेज़ों का ही बोलबाला था और बहुत कम ही हिंदुस्तानी कारोबारी तरक़्क़ी कर पाए थे. अंग्रेज़ों के मज़दूरों के तईं ज़ुल्म से उनकी मुख़ालिफ़त जायज़ थी. मज़दूर मुख़ालिफ़ ऐसी पॉलिसी को ब्रिटिश पार्लियामेंट में पास न होने देना उनके दल का फ़ैसला था. सभी चाहते थे के अंग्रेज़ों को ये एहसास हो जाए के हिंदुस्तानी अब जाग चुके हैं और ऐसी पॉलिसी के वो ख़िलाफ़ हैं ऐसा करने के लिए ही उन्होंने दिल्ली की मरकज़ी असेंबली में बम फेकने की प्लानिंग बनाई थी.
भगत सिंह चाहते थे के उनके इस क़दम से कोई ख़ून ख़राबा न हो और अंग्रेज़ों तक उनकी आवाज़ भी आसानी से पहुँच जाए. इसलिए 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने मिलकर असेंबली में 2 बम ऐसी जगह पर फेंके जहाँ पर कोई मौजूद न था. इसके बाद पूरा हाल धुएँ से भर गया भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें जुर्म क़ुबूल है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो इसलिए उन्होंने हॉल से न भागने का फ़ैसला किया इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया।

भगत सिंह की फांसी
26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह पर इलज़ाम साबित कर दिया. 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई फांसी की सज़ा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में दफ़ा 144 लगा दी गई। इसके बाद उस वक़्त के कांग्रेस सद्र पं. मदन मोहन मालवीय ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने हुक़ूक़ का इस्तेमाल करते हुए इंसानियत की बुनियाद पर फांसी की सज़ा माफ कर दें। भगत सिंह की फांसी की सज़ा माफ़ करवाने के लिए महात्मा गांधी ने भी 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम अवाम कीजानिब से भी वायसराय के सामने मुख़्तलिफ़ तर्को के साथ सज़ा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सज़ा माफ की जाए।

23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह और इनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से क़ब्ल वे लेनिन की ज़िंदगी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी ख़वाहिश पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की बायोग्राफी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का वक़्त दिया जाए। जेल के अफ़सरान ने जब उन्हें ये जानकारी दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था "ठहरिये! पहले एक इंक़लाबी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।"

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