दरअसल, उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट बैंक करीब 42-45 फीसदी है. इसमें 10 फीसदी यादव की तादाद है, जो रिवायती तौर पर समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के वोटर रहे हैं.
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रजत सिंह/नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों (UP Assembly Election 2022) में अभी लगभग साल का वक्त है लेकिन उससे पहले ही तमाम पार्टियां अपने लिए वोट की तलाश में जुट गई हैं. जहां कुछ नेता पार्टी बदल रहे हैं, तो कुछ नए गठबंधन की तलाश में हैं. इस बीच एक बड़ी घटना हुई, जब सोनेलाल पटेल की दो बेटियां अलग-अलग नेताओं से मिलीं. अपना दल (S) की मुखिया अनुप्रिया पटेल (Anupriya Patel) ने अमित शाह से मुलाकात की. वहीं, अपना दल (कृष्णा) की नेता पल्लवी पटेल (Pallavi Patel) ने अखिलेश यादव से मुलाकात की. इन मुलाकातों के पीछे यूपी की गैर यादव ओबीसी वोट की सियासत है. अब आप सोच रहे होंगे कि यह वोट बैंक इतना खास क्यों हैं, जो दोनों बड़ी पार्टियां जी-जान से लगी हुई हैं. इसके पीछे आंकड़ों का खेल है. आइए जानते हैं...
इस समय सबसे बड़ा वोट बैंक है गैर यादव ओबीसी
दरअसल, उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट बैंक करीब 42-45 फीसदी है. इसमें 10 फीसदी यादव की तादाद है, जो रिवायती तौर पर समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के वोटर रहे हैं. इसके बाद करीब 29-32 फीसदी वोट गैर यादव ओबीसी का है, जो एक नई पहचान बनकर सामने आया है. इनमें भी सैनी, शाक्य, कुशवाहा, मौर्य और कुर्मी तादाद के हिसाब से आगे हैं. जिनकी हिस्सेदारी करीब 15 फीसदी है.
इन जिलों में तय करते हैं हार-जीत
सिर्फ कुर्मी वोट बैंक की बात करें, तो पूरे राज्य में इनकी तादाद 4-5 फीसदी है. वहीं, करीब 17 जिले ऐसे हैं, जिनमें इनकी तादाद 15 फीसदी से अधिक है. इसलिए यहां ये आसानी से हार जीत तय करते हैं. पिछले 5-6 सालों में इनकी सबसे बड़ी नेता अनुप्रिया पटेल बन कर उभरी हैं. इसके अलावा सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह भी इसी समुदाय से आते हैं.
वहीं, कुशवाहा भी 13 जिलों में 10 फीसदी से ज्यादा हैं. इनके अलावा सैनी की तादाद प्रतापगढ़, इलाहाबाद, देवरिया, कुशीनगर, संत कबीरनगर, गोरखपुर, महराजगंज, आजमगढ़, वाराणसी और चंदौली जैसे जिलों में काफी अच्छी है. लगभग यही हालात मौर्य वोट के भी हैं, जो प्रदेश में 4-5 फीसदी के करीब हैं. केशव देव मौर्य, जो महान दल के नेता हैं, वो पकड़ बनाने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि, भाजपा सरकार में डिप्टी सीएम केशव मौर्य की अपने तबके में अच्छी पकड़ है. इनके अलावा करीब 23 जिलों में लोध की भी तादाद 5-10 फीसदी तक है, जो कल्याण सिंह के वक्त से भाजपा के वोटर रहे हैं. उमा भारती भी इस तबके की कयादत करती हैं.
2014 से बदल गई पहचान
पॉलिटिकल एक्सपर्ट अमिताभ तिवारी बताते हैं कि 2014 से पहले यह वोट बैंक काफी बंटा हुआ था. वक्त-वक्त पर अलग-अलग पार्टियों को वोट करता रहा. जैसे कभी 2007 में बसपा और 2012 में सपा को किया. लेकिन 2014 के बाद से भाजपा एक किस्म से इसे इकट्ठा करने में कामयाब रही. दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसी तबके से आते हैं. इसके अलावा भाजपा ने अपना दल, राजभर और निषाद जैसी छोटी पार्टियों को भी जोड़कर इसे साधने की कोशिश की, जो कामयाब रही.
गवाही देते हैं आंकड़े
जो बात अमिताभ तिवारी कहते हैं, उसकी गवाही आंकड़े भी दे रहे हैं. CSDS की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2014 लोकसभा चुनाव में जब भाजपा ने क्लीन स्वीप किया, तब भाजपा को 60 फीसदी गैर यादव ओबीसी ने वोट दिया था. इसके अलावा इन्हें कुर्मी और मौर्य समुदाय के 53 फीसदी वोट मिले थे. जबकि सपा-बसपा 11-13 फीसदी में निपट गए. वहीं, साल 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 40 - 20 फीसदी तक ही वोट मिल सके थे, जबकि साल 2017 में यह आंकड़ा बढ़ कर 60 फीसदी से भी ज्यादा हो गया.
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