आठ तरह के भारतीय शास्त्रीय नृत्य हैं उनमें से एक कथक नृत्य है. यह नृत्य उत्तरी भारत में बहुत मशहूर है. इस नृत्य में फारसी रीति-रिवाज हैं. प्राचीन काल में कथक को कुशिलव के नाम से जाना जाता था.
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नई दिल्ली: दुनियाभर में मशहूर कथक नर्तक पंडित बिरजू महाराज (Pandit Birju Maharaj) आज इस दुनिया को अलविदा कह गए हैं. पद्म विभूषण से सम्मानित बिरजू महाराज ने बरस के रविवार और सोमवार की दरमियानी रात अंतिम सांस ली. इस दुख की घड़ी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) समेत तमाम दिग्गजों ने गम का इज़हार किया. इस मौके पर हम आज आपको कथक के बारे में बताने जा रहे हैं.
क्या है कथक का मतलब और कहां हुआ जन्म?
आठ तरह के भारतीय शास्त्रीय नृत्य हैं उनमें से एक कथक नृत्य है. यह नृत्य उत्तरी भारत में बहुत मशहूर है. इस नृत्य में फारसी रीति-रिवाज हैं. प्राचीन काल में कथक को कुशिलव के नाम से जाना जाता था. यह नृत्य कहानियों को बोलने का एक बहुत बड़ा जरिया हुआ करता था. इस नृत्य के तीन प्रमुख घराने हैं. इसके तीन प्रमुख घराने हैं. कछवा के राजपूतों के राजसभा में जयपुर घराना, अवध के नवाब के राजसभा में लखनऊ घराना और वाराणसी के सभा में वाराणसी घराने का जन्म हुआ.
लखनऊ घराना
अवध के नवाब वाजिद आली शाह के दरबार में इसका जन्म हुआ। आगरा शैली के कथक नृत्य में सुंदरता, प्राकृतिक संतुलन होती है।
जयपुर घराना
राजस्थान के कच्छवा राजा के दरबार में इसका जन्म हुआ. शक्तिशाली ततकार, कई चक्कर और विभिन्न ताल में जटिल रचनाओं के रूप में नृत्य के अधिक तकनीकी पहलू यहां महत्वपुर्ण है. यहां पखवाज का बहुत इस्तेमाल होता है. यह कथक का प्राचीनतम घराना है.
बनारस घराना
जानकीप्रसाद ने इस घराने का प्रतिष्ठा किया था. यहां नटवरी का अनन्य इस्तेमाल होता है और पखवाज (एक प्रकार का तबला जो उत्तर-भारतीय शैली में इस्तेमाल आता है) तबले का इस्तेमाल कम होता है. यहां ठाट और ततकार में अंतर होता है. न्यूनतम चक्कर दाएं और बाएं दोनों पक्षों से लिया जाता है.
रायगढ़ घराना
छत्तीसगढ़ के महाराज चक्रधार सिंह इस घराने का प्रतिष्ठा किया था. अलग-अलग पसेमंजर के अलग शैलियों और कलाकारों के संगम और तबला रचनाओं से एक अनूठा माहौल बनाया गया था.
यह बहुत प्राचीन शैली है क्योंकि महाभारत में भी कथक का वर्णन है. मध्य काल में इसका सम्बन्ध कृष्ण कथा और नृत्य से था. मुसलमानों के काल में यह दरबार में भी किया जाने लगा. वर्तमान समय में बिरजू महाराज, पद्मामश्री डॉ पूरु दधीच श्रेष्ठ कथक गुरुजन है. इस नृत्य को न सिर्फ खुशी के मौकों पर किया जाता था बल्कि मनोरंजन के लिए भी किया जाता था.
वेदों में है खास जिक्र
1. ऋग्वेद में ‘नृत्यमानो देवता’ ऐसा वर्णित है. मतलब- नृत्य करते हुए देवता अथवा देवतागण नृत्य करते हैं.
2. यजुर्वेद में कहा गया है, ‘नृताय सूतं गीताय शैलूषम्’ अर्थात् नृत्य करने वाले सूत और गीत गाने वाले शैलूष होते थे. वैदिक काल में संगीत और नृत्यकला में मतभेद रहा हो, ऐसा किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है.
नोट यह खबर इंटरनेट पर मौजूद विभिन्न आर्टिकल्स को पढ़ने के बाद लिखी है.
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