'मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया'
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'मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया'

मजरूह सुल्तानपुरी ( Majrooh Sultanpuri) ने पचास से ज्यादा सालों तक हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखे. उन्होंने जिन फिल्मों के लिए आपने गीत लिखे उनमें चलती का नाम गाड़ी, नौ-दो ग्यारह, तीसरी मंज़िल, पेइंग गेस्ट, काला पानी, तुम सा नहीं देखा और दिल देके देखो शामिल हैं.

प्रतीकात्मक फोटो

नई दिल्ली: मजरूह सुल्तानपुरी (Majrooh Sultanpuri) बॉलीवुड में गीतकार के रूप में मशहूर हुए. मजरूह सुलतानपुरी 1919 में उत्तर प्रदेश के ज़िला सुलतानपुर में पैदा हुए. उनका असल नाम इसरार हसन ख़ान था. उनके वालिद ने ख़िलाफ़त आंदोलन के प्रभाव के कारण बेटे को अंग्रेज़ी शिक्षा नहीं दिलाई और उनका दाख़िला एक मदरसे में करा दिया गया जहां उन्होंने उर्दू के अलावा अरबी और फ़ारसी पढ़ी. 1933 में उन्होंने लखनऊ के तिब्ब्या कॉलेज में दाख़िला लेकर हकीम की सनद हासिल की. तिब्बिया कॉलेज में शिक्षा के दिनों में उन्हें संगीत से भी दिलचस्पी पैदा हुई थी और उन्होंने म्यूज़िक कॉलेज में दाख़िला भी ले लिया था. मजरूह ने 1935 में शायरी शुरू की और अपनी पहली ग़ज़ल सुलतानपुर के एक मुशायरे में पढ़ी. मजरूह ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने उर्दू को एक नयी ऊंचाई दी. उनका शेर 'मै अकेला ही चला था, जानिबे मंजिल मगर लोग पास आते गये और कारवां बनता गया' बहुत मशहूर है. मजरूह सुल्तानपुरी ने पचास से ज्यादा सालों तक हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखे. उन्होंने जिन फिल्मों के लिए आपने गीत लिखे उनमें चलती का नाम गाड़ी, नौ-दो ग्यारह, तीसरी मंज़िल, पेइंग गेस्ट, काला पानी, तुम सा नहीं देखा और दिल देके देखो शामिल हैं. मजरूह सुल्तानपुरी को 1994 में फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इससे पहले उन्हें 1980 में ग़ालिब एवार्ड और 1992 में इकबाल एवार्ड मिले थे. यहां पेश हैं मजरूह सुल्तानपुरी के कुछ चुनिंदा शेर.

जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूँ सँभल के बैठ गए 
तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की 
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ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब 
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं 
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बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए 
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते 
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बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना 
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते 
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अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हम 
उठने को उठ तो आए तिरे आस्ताँ से हम 

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तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए 
निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए 
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हम हैं का'बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात 
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए 
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अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर 
अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे 
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बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने 
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके 
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गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते 
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की 
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