गीत, ग़ज़ल, नज़्म, शायरी के कद्रदानों के इस घटते दौर में भी राहत साहब का नाम बड़े अदब से लिया जाता है. आधुनिक शायरी की रवायतों को सांस्कृतिक मंचों पर शोहरत दिलाने में राहत साहब ने विशेष भूमिका अदा की.
Trending Photos
Rahat Indori Birthday Special: मध्य प्रदेश का शहर इंदौर राहत साहब के बिना बड़ा सूना लगने लगा है. कभी इसी शहर में मजदूरी करने आए उनके पिता ने यह सोचा नहीं होगा कि एक दिन इस शहर की पहचान उनके बेटे के नाम से होगी. आम लोगों के लिए आम लफ्जों में खास बात कहने का हुनर सिर्फ राहत इंदौरी में ही था. आम आदमी के जज्बातों को राहत साहब ने बहुत सलीके से उकेरा है.
गीत, ग़ज़ल, नज़्म, शायरी के कद्रदानों के इस घटते दौर में भी राहत साहब का नाम बड़े अदब से लिया जाता है. आधुनिक शायरी की रवायतों को सांस्कृतिक मंचों पर शोहरत दिलाने में राहत साहब ने विशेष भूमिका अदा की. राहत साहब कवि सम्मेलनों और मुशायरों की जान होते थे; लफ्जों को भाव- भंगिमा में ढाल कर उसे जीवंत कर देना उन्हें बखूबी आता था.
पिछले 50 साल में मुशायरे की जान बन के राहत इंदौरी साहब ने मुल्क ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी शायरी का परचम लहराया.
उर्दू साहित्य के अध्यापन से अपना कैरियर शुरू कर मुशायरों में मकबूल हुए राहत इंदौरी साहब ने कई सफल फिल्मों के लिए गीत भी लिखें. इन्होंने 'मुन्ना भाई एमबीबीएस', 'मिशन कश्मीर', 'इश्क', 'मर्डर' , 'बेगम जान' जैसी फिल्मों के गीत लिखे हैं. ' बुमरो-बुमरो श्याम रंग बमरो ' जैसे पारंपरिक कश्मीरी बोल को उन्होंने खूबसूरत गीत में ढाल दिया, जिसका उपयोग मशहूर निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी फिल्म 'मिशन कश्मीर' में किया जो अपने समय के मौजूदा हिट गानों में से एक साबित हुआ.
चित्रकारी भी जानने वाले राहत साहब मुफलिसी के दौर में साइनबोर्ड लिखकर अपने परिवार का खर्चा चलाया करते थे.
नामचीन शायर राहत इंदौरी साहब किसी से काफी सहजता के साथ पेश आते थे. उनकी सादगी उनकी शख्सियत का हिस्सा थी. अपनी शायरी के माध्यम से उन्होंने बदलते सामाजिक और सियासी दौर का अवाम को आइना दिखाया. उन्होंने हर सामाजिक, सांस्कृतिक और तत्कालिक प्रासंगिक मुद्दों पर शायरी की. राहत इंदौरी साहब बाजारू संस्कृति के दौर में तहजीब और अदब पर विशेष जोर देते थे. उनका मानना था कि जब तक इसमें तब्दीली नहीं आएगी, तब तक युवा अपने संस्कृति से नहीं जुड़ेगा. जब तक नई पीढ़ी पुराने रिवाजों से नहीं जुड़ेगी, तो पुराने रवायतें धूमिल पड़ने लगेंगी.
यह भी पढ़ें: Happy New Year 2022: 'ऐ नए साल बता तुझ में नया-पन क्या है'
युवाओं की नब्ज थामने की कला राहत साहब बखूबी जानते थे. उनकी यह नज्म युवा काफी पसंद करते हैं;
किसने दस्तक दी ये दिल पर कौन है,
आप तो अंदर हैं बाहर कौन है.
आधुनिक उर्दू शायरी के दौर में राहत इंदौरी का नाम काफी अदब से लिया जाता हैं. रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम की चौथी संतान एक नामचीन शायर बनेगा और उर्दू जगत में इतना मकबूल हो जाएगा. यह उन्होंने शायद ही सोचा होगा. मगर यहां प्यासा फिल्म का वो प्रसिद्ध डायलॉग उनपर काफी सटीक बैठता हैं-
बरखुरदार शायरी केवल अमीरों की जागीर नहीं.
1 जनवरी 1950 को इंदौर में राहत इंदौरी का जन्म हुआ था. इनकी प्राइमरी और सेकेंडरी तालीम नूतन स्कूल इंदौर से हुई. सन 1973 में उन्हें इस्लामिया कारिमिया कॉलेज से स्नातक (गोल्ड मेडलिस्ट) एवं सन 1975 में बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल उर्दू साहित्य में एम.ए किया. सन् 1985 में उनको अपने शोध 'उर्दू मुशायरा' के लिए पीएचडी की उपाधि से भी नवाजा गया. कई पुरस्कारों से नवाजे गए राहत साहब का मौजूद, रुत, मेरे बाद ,चांद पागल है, नाराज नाम से शायरियों का संकलन हैं. वो 10 अगस्त 2020 को इस फा़नी दुनिया से कूच कर गए.
मौजूदा दौर में एक समुदाय विशेष को जब शक के दायरे से देखा जा रहा है, तो उस समय राहत साहब की लिखी पत्तियां एक नजीर पेश करती हैं-
"मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना
लहू से मेरी पेशानी पर हिंदुस्तान लिख देना"
राहत इंदौरी साहब हमेशा संप्रदायिक और विभाजनकारी शक्तियों के खिलाफ सख्ती से पेश आते थे. इस बात की बानगी उनकी इस ग़ज़ल में देखने को मिलती हैं-
"लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में,
यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है"
रिशतों को भी लेकर राहत साहब की गहरी समझ थी जिसकी झलक उनकी इन नज्मों में देखने को मिलती है जैसे-
"मेरे खुलूस की गहराई से नहीं मिलते
यह झूठे लोग हैं सच्चाई से नहीं मिलते।
मोहब्बतों का सबक दे रहे हैं दुनिया को,
जो ईद पर अपने सगे भाई से नहीं मिलते।"
हिंदुस्तान की सरजमीं को सर माथे पर रखने वाले राहत साहब को मिट्टी से खासा लगाव था. मौजूदा दौर की 'घर वापसी' जैसे नए अलगाववादी शब्दों का वो करारा जवाब देते हैं.
"सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।"
मेरे ख्याल से राहत साहब की लिखी यह दो पंक्तियां सियासत को भटकाने वालों पर काफी सटीक बैठती है.
"चरागों को उछाला जा रहा है,
हवा पर रोक डाला जा रहा है।
ना हार अपनी ना जीत होगी,
मगर सिक्का उछाला जा रहा हैं।"
राहत इंदौरी साहब की एक अपनी शैली थी और उनके लिखने का दायरा काफी व्यापक था. उन्होंने धर्म सियासत राजनीति मोहब्बत के साथ मौसम पर भी लिखा हैं-
"ऐसी सर्दी है कि सूरज भी दुहाई मांगे
जो हो परदेस में वो किससे रजाई मांगे।"
उनकी कविता बुलाती है मगर जाने का नहीं तमाम सोशल प्लेटफार्म पर काफी लोकप्रिय है जिस पर आधारित काफी मीम्स और वीडियो बनाए जाते हैं.
दोयम दर्जे की सियासत अब कला संस्कृति साहित्य पर भी दिखने लगा हैं. अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश सरकार के उच्च शिक्षा सेवा आयोग की आधिकारिक वेबसाइट पर अकबर इलाहाबादी को अकबर प्रयागराजी लिखे जाने पर मौजूदा सरकार की काफी भर्त्सना हुई, जिसकी प्रतिक्रिया हमें सोशल मीडिया पर देखने को खूब मिली.
उनकी शायरी आज के सियासतदानों से आम जनता की मौजूं सवाल करती नजर आती हैं-
"जुबां तो खोल नजर तो मिला जवाब तो दे,
मैं कितनी बार लुटा हूं मुझे हिसाब तो दो।"
ए. निशांत
लेखक, पत्रकार और शोधार्थी हैं.
Zee Salaam Live TV: