मुसलमानों के लिए क्यों खास है रमज़ान का महीना, क्या है इसका मतलब और मकसद; यहां जानिए
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मुसलमानों के लिए क्यों खास है रमज़ान का महीना, क्या है इसका मतलब और मकसद; यहां जानिए

रोजा रहने का मतलब सिर्फ भूखा रहना नहीं है. जिस्म के हर अंग का रोजा होता है. रोजा न सिर्फ दिन में खाने-पीने से परहेज करने का नाम है बल्कि यह मानव शरीर और आत्मा के शुद्धिकरण के साथ अधर्म से दूर रहने और धर्म के रास्ते पर चलने का अभ्यास करने का नाम है. 

अलामती तस्वीर

नई दिल्लीः मुस्लिमों का पवित्र रमजान माह इतवार यानी 3 अप्रैल से शुरू हो रहा है. रमजान अरबी माह का नाम है और यह साल का नौवां महीना होता है, जैसे अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक सितंबर साल का नौवां महीना है. रोजा अरबी जुबान का एक षब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है 'रोक देना’ या 'रुक जाना’ मतलब रोजे के दौरान कुछ खाने-पीने के अलावा हर उस काम से खुद को दूर कर लेना है, या रोक देना है, जो अनैतिक एवं अर्धम है और जिससे कुरान और हदीस में मना किया गया है. 
रमजान के महीने का इस्लाम मजहब में खास अहमियत है. इस्लाम के पांच मौलिक सिद्धांत तौहीद (एकेश्वेरवाद), नमाज, रोजा, जकात और हज में से रोजा भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. यानी यह सभी मुसलमानों पर फर्ज है. हर हाल में इन सिद्धांतों का पालन करना और इसे अपनी जिंदगी में पालन करना इस्लाम के मानने वालों के लिए जरूरी होता है. 

एक माह रखा जाता है रोजा  
मुसलमानों पर फर्ज करार दिए गए रोजाना पांच वक्त की नमाज के अलावा पूरे एक माह तक रोजे रखे जाते हैं, और कुरान की शिक्षाओं को सुना जाता है. कुरान सुनने के लिए एक खास नमाज होती है, जिसे ’तरावीह’ कहते हैं. इस महीने में तरावीह की नमाज पढ़ने और उसमें कुरान को सुनने का भी खास महत्व है. यानी लाजिमी तौर पर इसका एहतमाम (आयोजन) करना होता है. ऐसा न करने वालों को धर्म के मुताबिक पाप का भागिदार बताया गया है. हालांकि बीमारी या कुछ अन्य परिस्थितियों में रोजे से छूट भी दी गई है या इसे बाद में रखने का भी प्रावधान है. 

क्या होता है रोजा ?
रमजान में रोजे के दौरान सुबह सादिक (ब्रह्ममूर्त) से लेकर षाम को सूर्यास्त होने के बीच तक कुछ भी खाने और पीने पर पाबंदी होती है. हालांकि सिर्फ खाना और पीना त्याग देने से रोजा मुकम्मल नहीं होता है. मुफ्ती इरफान अहमद कहते हैं, रोजा सिर्फ खाने-पीने से परहेज करने का नाम नहीं है, बल्कि यह इंसान की पूरी आत्मा और षरीर के शुद्धिकरण की एक प्रकिया है. रोजे का मामला सिर्फ मुंह बंद रखने से नहीं है, बल्कि पांच ज्ञानेंद्रियों त्वचा, आंख, कान, नाक और जुबान के अलावा यहां हाथ और पांव का भी रोजा होता है. 

क्या है रोजे का मकसद? 
मुफ्ती इरफान अहमद कहते हैं रमजान मोमिनो (धर्म के रास्ते पर चलने वाले लोगों) के लिए एक रिफ्रेशर कोर्स की तरह है. दरअसल, साल के 11 महीने इंसानों से जिंदगी गुजारने और धर्म, सुन्नत और नेक रास्ते पर चलने में जो लापरवाही होती है, उसे फिर से सही करने का यह मौका होता है. इसका मकसद लोगों की आत्मा और षरीर का शुद्धिकरण करना और उसे एक संवेदनशील प्राणी बनना है. जो इंसान रोजे रखते है, तो उसे दूसरों की भूख और प्यास को महसूस करने की सलाहियत उनसे ज्यादा होती है, जिसे कभी भूख और प्यास सामना न करना पड़ा हो. इसी तरह आंख और कान के रोजे का मतलब है कि आप किसी का बुरा न सोचे, बुरा न देखें, बुरा न सुने और बुरा न बोले. अपने हाथों से कोई पाप या अनैतिक काम न करें और अपने पांव बुराई, पाप या अधर्म के रास्ते पर लेकर न चलें. इसी तरह रोजा या उपवास का मतलब शरीर को आराम देना और उसे फिर से तरोताजा होने का मौका देना होता है. इस बात की तस्दीक वैज्ञानिक रिसर्च भी करते हैं कि उपवास का षरीर के अंगों के साथ-साथ दिमाग पर भी काफी सकारात्मक असर पड़ता है. 

रमजान में जकात और फितरे का महत्व 
रमजान माह में ही आर्थिक रूप से संपन्न मुसलमान को अपने संचित धन का 2.5 प्रतिशत समाज के गरीब और अभावग्रस्त लोगों को दान करने का हुक्म है. जकात भी इस्लाम के पांच मौलिक सिद्धांतों में से एक है. यह व्यवस्था इसलिए है ताकि समाज में कोई भी वंचित और अभावग्रस्त न रहे और किसी के पास धन का अंबार न खड़ा हो जाए. इस व्यवस्था को ’जकात’ कहा जाता है. जकात किसी के पास साल भर तक कैश के रूप में संचित धन के अलावा 7.5 तोला सोना और 52.5 तोला चांदी होने पर भी दिया जाता है. रमजान में जकात के अलावा फितरा और खैरात देने की भी व्यवस्था है. फितरा और खैरात भी दान का एक रूप है, जिसपर समाज के गरीब लोगों का हक होता है, जिन्हें ये पैसे दिए जाते हैं. 

70 गुणा ज्यादा सवाब का वादा 
कुरान और हदीस के मुताबिक रमजान में किए गए हर इबादत का सवाब (पूण्य) बाकी के दिनों से 70 गुणा ज्यादा मिलता है. इसलिए लोग इस माह में मुस्तैदी के साथ नामाज, कुरान और रोजे का एहतमाम करते हैं. इस माह में सामूहिक तौर पर नमाज अदा करने पर ज्यादा सवाब का वादा किया गया है. इसलिए लोग मस्जिदों में जाकर इबादत करना ज्यादा पसंद करते हैं. 

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