Sahir Ludhianvi Birthday Special: कितना वहशतनाक इत्तेफाक है कि आज जब हम अमन और शांति के पैरोकार साहिर लुधियानवी को याद कर रहे हैं तब दुनिया का एक हिस्सा जंग की आग में झुलस रहा है. यूक्रेन पर रूस की बेरहमाना यलगार जारी है;
 
टैंक आगे बढ़ें कि पीछे हटें 
कोख धरती की बाँझ होती है 
फतह का जश्न हो कि हार का सोग 
जिंदगी मय्यतों पे रोती है 


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साहिर ने कहा था - दुनिया का कोई ऐसा मसला नहीं है जो बातचीत और सुलह सफाई से हल न हो सके. साहिर हर उम्दा फनकार की तरह न हिन्दू थे न मुसलमान;  बल्कि वह एक असाधारण इंसान थे. साहिर की शायरी एक ही मजहब का संदेश देती है और वो मजहब है इंसानियत का;


वही है जब कुरआन का कहना, 
जो है वेद पुरान का कहना, 
तो फिर ये शोर शराबा क्यूँ है, 
इतना खून खराबा क्यूँ है, 
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया 
हमने इसे हिन्दू या मुसलमान बनाया 
कुदरत ने तो बख्शी थी हमें एक ही धरती 
हमने कहीं भारत कहीं ईरान बनाया


वक्त गुजरने के साथ और शिद्दत से याद आते हैं साहिर 
8 मार्च 1921 को पैदा होने वाले साहिर लुधियानवी को गुजरे हुए आज चार दशक से भी ज्यादा का अरसा गुजर चुका है, लेकिन ये करिश्मा ही है कि जैसे-जैसे वक्त गुजरता जा रहा है साहिर और भी शिद्दत से याद आ रहे हैं. जब तक वो जिंदा थे, अपने आप में अकेले थे. हिंदी सिनेमा और उर्दू शायरी में साहिर लुधियानवी को बहुत बड़ा और बहुत खास मुकाम हासिल है. मोहब्बत के नग्मे हों या वतनपरस्ती के, इंसानियत के हों या इंकलाब के, उनके हर नग्मे में एक खास अंदाज, एक अलग नजरिया और एक अलग फलसफा झलकता है. यही वजह हैं कि इतने अर्से बाद भी उनकी शायरी और उनके नग्मे आज भी खास मानवियत के हामिल हैं.


दिन रोटी की तलाश में और रात शायरी में गुजर जाती
लुधियाना के एक सामंत फजल मोहम्मद की कई बीवियां थीं जिनमें साहिर की वालिदा सरदार बेगम भी एक थीं जिनकी अपने शौहर से कभी नहीं बनी. यहां तक कि दोनों में मुकदमेबाजी भी हुई और 13 साल के साहिर ने मां के हक में अपने वालिद के जुल्मो जब्र के खिलाफ अदालत में गवाही दी. साहिर की इब्तदाई तालीम लुधियाना के खालसा स्कूल में हुई और कॉलेज की पढ़ाई लुधियाना के सरकारी कॉलेज में. आज भी लुधियाना के सरकारी कॉलेज के दरो-दीवार साहिर की मौजूदगी का एहसास दिलाते हैं. हालात की सितमजरीफी के चलते साहिर कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ कर अपनी मां के साथ लाहौर चले गए. वहाँ दिन भर रोटी के चक्कर में रहते और रात में शायरी लिखते. ये वही वक्त था जब इकबाल, फैज, जोश, मजाज, फिराक की शायरी का बोलबाला था. साहिर के नज्मों का मजमूआ 'परछाईयाँ' और 'तल्खियां’ इसी दौर की नायाब तखालीक हैं. आगे चलकर 'तल्खियां’ और 'परछाइयां’ के अलावा 'गाता जाए बंजारा’, 'आओ कि कोई ख्वाब बुनें’ और 'कुल्लियात-ए-साहिर’ वगैरह प्रकाशित हुए.


साहिर को अपना दिल दे बैठी थीं अमृता प्रीतम
1949 में साहिर ने 'सवेरा’ के अपने संपादकीय में हुकूमत-ए-पाकिस्तान के खिलाफ लिखा जिसके लिए उनके खिलाफ वारंट जारी हो गया. साहिर ने पाकिस्तान छोड़ दिया और दिल्ली में आकर रहने लगे. जहां उनकी मुलाकात पुनः अमृता प्रीतम से हुई. वही अमृता प्रीतम जो प्रीत नगर में 1944 के एक मुशायरे में साहिर को अपना दिल दे बैठी थीं. हालांकि अमृता की शादी बचपन में प्रीतम सिंह से हो चुकी थी लेकिन निबाह न हो सका था. साहिर ने भी पाकिस्तान की मशहूर लेखिका हाजिरा मसरूर से इंगेजमेंट कर लिया था, लेकिन एक दिन किसी मुशायरे में हाजिरा ने साहिर के तलफ्फुस को दुरुस्त किया तभी साहिर को गुस्सा आ गया और उन्होंने मंगनी को नमस्ते कह दिया.


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'आखिरी खत' में अपने रिश्तों का किया जिक्र 
साहिर से अपने 'ताल्लुकात' को अमृता प्रीतम ने एक कहानी की शक्ल में दिल्ली से शाया होने वाले एक रिसाला 'आईना' में बयान किया जिसका उन्वान उन्होंने 'आखिरी खत' रखा. प्रकाशित होने के काफी अर्से तक साहिर ने उस कहानी का कोई नोटिस नहीं लिया. एक बार जब अचानक दोनों का सामना हो गया तो साहिर ने बताया कि मैं कहानी पढ़कर इंतहाई खुश हुआ और रिसाला लेकर अपने दोस्तों को बताना चाहता था कि अमृता ने ये कहानी मुझ पर लिखी है, लेकिन मैंने खामोशी इख्तियार कर ली क्योंकि जब ख्वाजा अहमद अब्बास और कृष्ण चंद्र का ख्याल आया तो डर गया क्योंकि उनसे जो फटकार सुननी पड़ती उसका सामना कैसे करता? साहिर और अमृता जैसे दो अजीम फनकार एक दूसरे को चाहते हुए भी एक न हो सके. इसमें साहिर की तबीयत में जो नफसियाती हिचकिचाहट थी उसका दखल बहुत था. साहिर ने अमृता प्रीतम की हथेली पर जो दस्तखत किए थे वो अमृता की हथेली से होता हुआ उनके शिरयानों में उतर गया जिसे उन्होंने ताउम्र संजोकर रखा और अज्दवाजी रिश्ते में न बंधकर भी दोनों एक दूसरे के खयालों में बने रहे. 


अमृता प्रीतम रसीदी टिकट में लिखती हैं-
जब एक दिन साहिर आया, तो उसे हल्का-सा बुखार चढ़ा हुआ था. उसके गले में दर्द था, सांस खिंचा-खिंचा था. उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने ‘विक्स’ मली थी. कितनी ही देर मलती रही और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े-खड़े मैं पोरों से, उंगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले-हौले मलते हुए सारी उम्र गुजार सकती हूं. मेरे अंदर की औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज-कलम की जरूरत नहीं थी.


अमृता प्रीतम रसीदी टिकट में आगे लिखती हैं- 
और जिंदगी में पहली बार एहसास हुआ कि मैं जरुर उसके साए में चलती रही हूँ, शायद पिछले जन्म से. रास्ते अलग होने थे, जो आखिर लाहौर पहुंच कर अलग हो गए. उन उदास दिनों में मैंने एक बार किसी से कहा, उसे अगर कोई बुलाए तो वो आ जाएगा! उसने कहा अगर तुम बुलाओ तो सारे काम छोड़कर आ जाएगा. मैंने कहा, "अच्छा... कभी कहना उसे" (कि अमृता याद कर रही है) इतना कहना था और कहने वाले का करम के एक दिन वो आ गया. मेरी दहलीज पे पहली बार उसके कदम छुए.


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अमृता का इश्क साहिर से इस कदर गहरा था कि साहिर के कमरे से जाने के बाद वह साहिर के पिए हुए सिगरेट की बटों को जमा करतीं और उन्हें एक के बाद एक अपने होठों से लगाकर साहिर को महसूस किया करती थीं. मैं जाती तौर पर अमृता प्रीतम के पाकीजा इश्क से इतना मुत्आस्सिर हूँ कि मैंने अपने महबूब का नाम अमृता प्रीतम रख लिया है. उन्होंने मुझे साहिर के बदले फिराक-ए-यार का नाम दिया जो अब भी मेरा पेन नेम बना हुआ है.


सब में शामिल हो मगर सबसे जुदा लगती हो
सिर्फ हमसे नहीं खुद से भी खफा लगती हो


बहरहाल साहिर का दिल ज्यादा दिनों तक दिल्ली में नहीं लगा और वो 1951 में मायानगरी बंबई चले गए और संगीतकार सचिन देव बर्मन से मिले. एसडी बर्मन ने उन्हें फिल्म नौजवान के गीत लिखने को कहा. लता मंगेशकर की आवाज में ... ठंडी हवाएं, लहरा के आएं... गीत से आते ही साहिर को पहचान मिल गई. फिर एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में ही आई फिल्म 'बाजी' का गीत... तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले... अपने पे भरोसा है तो इक दांव लगा ले... से साहिर की गाड़ी चल पड़ी.


'प्यासा' सालों पुरानी इस जोड़ी की आखिरी फिल्म साबित हुई
फिल्मों के कामयाब गीतकार बन जाने के बाद साहिर में रऊनत पैदा हो गईं, जो किसी भी कामयाब इंसान में आ ही जाती है. उन्होंने शर्त रख दी कि वो किसी भी संगीतकार की धुन पर गीत नही लिखेंगे बल्कि उनके गीतों पर धुनें बनाई जाएगीं. यानी उस दौर में पहले संगीतकार कोई धुन बनाता फिर उसपर शायरों से गीत लिखने को कहा जाता था. साहिर ने इस रवायत को तोड़ा. साहिर ने अपने मोहसिन एसडी बर्मन से मुतालिबा किया कि वो हार्मोनियम लेकर उनके घर आएं और यहीं पर धुनें कंपोज करें. एसडी बर्मन को अपनी ये अहानत बर्दाश्त नही हुई और उन्होंने साहिर से रिश्ता तोड़ लिया. आखिरकार 'प्यासा' सालों पुरानी इस जोड़ी की आखिरी फिल्म साबित हुई. 


ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है
वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है 
जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है  
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!


साहिर ने ये भी मुतालिबा किया कि उनके गीतों का मोवाविजा संगीतकार से एक रुपये ज्यादा दिया जाए और ये मुतालिबा भी किया कि आकाशवाणी पर प्रसारित किए जाने वाले विविध भारती के गानों में गीतकार के नाम का भी ऐलान किया जाए, जो पहले नहीं किया जाता था. बहरहाल उनका ये मुतालिबा भी मंजूर हुआ और इस तरह गीतकारों को भी इज्जत मिलनी शुरू हुई.


साहित्य की हर विद्या में साहिर ने कलम चलाई 
साहिर ने सियासी शायरी की, रुमानी शायरी की, नफसियाती शायरी की, इंकलाबी शायरी की, भजन लिखे, कव्वालियां लिखी, बल्कि यूं कहा जाए कि उन्होंने अपनी शायरी में इंसानी जिंदगी के तमाम पहलुओं को छुआ. उनकी शायरी में किसानों और मजदूरों की बगावत का एलान भी है. मजबूरों, बेबसों और मजलूम औरतों के दर्द की दास्तान भी है. उनके जाती तज्रिबात व एहसासात ने उनकी शायरी में दूसरे शोअरा के मुकाबले ज्यादा सच्चाई और गुदाज पैदा किया और मुहब्बत की आमेजिश ने उनके कलाम में अफाकियत अता की.


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साथी हाथ बढ़ाना, साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जाएगा मिल कर बोझ उठाना
जिनके जुल्म से दुखी है जानता हर बस्ती हर गंव मे
दया धरम की बात करें वो बैठ के साझी सभाओं में 
दान का चर्चा घर-घर पहुँचे लूट की दौलत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आये असली सूरत छुपी रहे
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया
तुलती है कहीं दीनारों में, बिकती है कहीं बाजारों में
नंगी नचवाई जाती है, ऐय्याशों के दरबारों में


साहिर को 1964 और 1977 में 'ताजमहल' और 'कभी-कभी' के लिए बेहतरीन गीतकार का फिल्म फेयर अवार्ड मिला और 1971 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया. 1972 में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था. 2013 में भारतीय डाक विभाग ने उनके नाम से एक स्मारक डाक टिकट भी जारी किया. 


साहिर और जावेद अख्तर की मुलाकात 
एक दिन साहिर ने जावेद अखतर के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल है, उदास हो?” जावेद ने साहिर से कहा कि अगर वो कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा. साहिर कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज में बोले - “जरूर नौजवान, फकीर देखेगा क्या कर सकता है.”
फिर पास रखी मेज की तरफ इशारा करके साहिर ने कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”. जावेद अखतर ने देखा तो मेज पर दो सौ रुपए रखे हुए थे.
 
उसके बाद जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते - “साहिर साब! आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं” साहिर मुस्कुरा कर रह जाते. साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”.
 
फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख आई 25 अक्टूबर 1980 की वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ. कपूर का कॉल आया. उनकी आवाज में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था. उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे. जूहू कब्रिस्तान में साहिर को इस्लामी रस्म-ओ-रवायत के मुताबिक दफ्न किया गया. सबसे आखिर में जावेद अख्तर कब्रिस्तान से बाहर निकलने लगे कि उन्हें किसी ने आवाज दी. जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक साहब थे. अशफाक उस वक्त की बेहतरीन अफसाना निगार वाजिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था. अशफाक हड़बड़ाए चले आ रहे थे. उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही खबर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे. उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा- “आपके पास कुछ पैसे पड़ें हैं क्या? वो कब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाजी में ऐसे ही आ गया”. जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा-’’हां-हां, कितने रुपए देने हैं. उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए..’’ और इस तरह से साहिर ने अपना कर्ज जावेद अख्तर से वसूल कर लिया. 


कल और आएंगे नगमों की
खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझसे बेहतर कहने वाले
तुमसे बेहतर सुनने वाले
कल कोई मुझको याद करे
क्यूँ कोई मुझको याद करे
मसरूफ जमाना मेरे लिये
क्यूँ वक्त अपना बरबाद करे
मैं पल दो पल का शायर हूँ ...


-अब्दुल गफ्फार
लेखक स्तंभकार, कहानिकार और हिंदी फिल्मों के स्क्रीन प्ले राइटर हैं.


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