Syed Ahmed Khan Birth Anniversary: हर साल 17 अक्टूबर को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी 'सर सैयद डे' मनाता है. इसी दिन दिल्ली में 17 अक्टूबर 1817 को पैदा हुए सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की नीव रखी थी, जो आज एक वट वृक्ष बन गया है, जिसकी छाँव में बैठकर आज देशभर के नौजवान बुद्ध की तरह ज्ञान लेते हैं.आइये जानते हैं, सर सैयद अहमद खान ने कैसे रखी थी AMU की बुनियाद?
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Syed Ahmed Khan Birth Anniversary: देश की टॉप 5 यूनिवर्सिटी में शुमार अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का आज स्थापना दिवस है. इसी दिन यूनिवर्सिटी के बानी (संस्थापक) सर सैयद अहमद खान का जन्मदिन होता है, और एएमयू हर साल 17 अक्टूबर को उनके जन्म दिवस को 'सर सैयद डे' के तौर पर मनाता है. भारत के मुसलमानों के बीच तालीम- ओ- तरबियत को फरोग देने और उनमें राजनीतिक और बौद्धिक चेतना पैदा करने में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और सर सैयद अहमद खान का अहम किरदार है.
दिल्ली में 17 अक्टूबर 1817 को पैदा हुए सर सैयद अहमद खान का खानदान सत्ता और संस्कृति दोनों के बेहद करीब रहता था. उनके नाना मुगल सम्राट के प्रधानमंत्री थे और परिवार का ईस्ट इंडिया कंपनी के अन्दर भी काफी रुतबा और दबदबा था.
सर सैयद की बुनियादी तालीम बेहद पारंपरिक तरीके से हुई थी, लेकिन उनका नजरिया उतना ही मॉडर्न था. उनके भाई ने दिल्ली में सबसे शुरुआती प्रिंटिंग प्रेसों में से एक की स्थापना की थी, जो ये जाहिर करता है कि उनके परिवार में विचारों के प्रचार- प्रसार और आधुनिक लोक- विमर्श के प्रति एक स्वाभाविक झुकाव था. 1838 में, वित्तीय कठिनाइयों की वजह से, युवा सर सैयद ने ईस्ट इंडिया कंपनी में एक क्लर्क के तौर पर काम करना शुरू किया. उनकी काबलियत ऐसी थी कि सिर्फ तीन साल बाद, 1841 तक, उन्होंने उप-न्यायाधीश की लियाकत हासिल कर सब- जज नियुक्त हो गए.
लेकिन एक जज के फराएज के साथ-साथ उनका अदबी जुनून भी जिंदा रहा. 1847 में उन्होंने दिल्ली की शानदार पुरानी इमारतों पर एक पुरातात्विक कृति, 'आसार-उस-सनादीद' प्रकाशित की.
भारत का पहला स्वतंत्रा आन्दोलन 1857 का भारतीय विद्रोह सर सैयद अहमद खान की ज़िन्दगी का एक फैसलाकुन मोड़ था. उन्होंने अपनी आंखों के सामने मुगल हुकूमत का जवाल(पतन) होते हुए देखा था. विद्रोह की नाकामी के बाद मुस्लिम समुदाय सियासी तौर पर हाशिए पर चला गया था. ब्रिटिश सरकार के लिए मुसलमान मुख्य विद्रोही थे, और उनकी सदियों पुरानी सियासी ताक़त ख़त्म हो चुकी थी.
सर सैयद अहमद खान ने मुस्लिम समुदाय की सामाजिक और आर्थिक हालात को सुधारने के लिए बड़े स्तर परआंदोलन चलाया, जिसे हम अलीगढ़ आंदोलन के नाम से भी जानते हैं. इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए, उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से काम किया.
सर सैयद अहमद खान ने 1864 में साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की, जिसका मकसद पश्चिमी साहित्य और विज्ञान की किताबों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना था, ताकि समुदाय आधुनिक ज्ञान से रूबरू हो सके और इसे स्वीकार करने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो सके.
1870 में 'तहजीबुल अखलाक' पत्रिका का प्रकाशन किया जिसके जरिये उन्होंने सामाजिक और धार्मिक सुधारों पर जोर दिया.
इसके बाद 7 जनवरी, 1877 को अलीगढ़ में मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल (एमएओ ) कॉलेज की स्थापना की गई. इंग्लैंड में ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों से प्रेरित होकर सर सैयद अहमद खान ने एमएओ कॉलेज को उन्हीं के पैटर्न पर बनाया था. यह भारत के पहले विशुद्ध रूप से आवासीय शैक्षणिक संस्थानों में से एक था.
मुहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल का मकसद बिल्कुल साफ था कि मुस्लिम नौजवानों को अंग्रेजी शिक्षा से जोड़ना, ताकि वे सरकारी रोजगार के लायक बन सकें और मुगल शासन के पतन के बाद अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता फिर से हासिल कर सकें. 1920 तक यह कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में बदल गया, जो आज भी भारत के सबसे महत्वपूर्ण केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है.
यह जानना भी बेहद दिलचस्प है कि एमएओ कॉलेज, जिसे एक मुस्लिम पहचान को मजबूत करने के लिए स्थापित किया गया था, उसकी वित्तीय नींव अखिल भारतीय और गैर-सांप्रदायिक थी.
मुस्लिम पुनर्जागरण के अगुआ सर सैयद अहमद खान ने अपनी संस्था के लिए अमीर और गरीब, हिंदू और मुस्लिम, यहां तक कि प्रमुख हिंदू रियासतों जैसे पटियाला और दरभंगा के महाराजाओं से भी बड़े दान लिए थे. इस कॉस्मोपॉलिटन फंडिंग ने शुरुआती दिनों में उनके शैक्षिक मिशन को एक साझा राष्ट्रीय ज़रूरत के तौर पर मान्यता दी थी.
'अस्बाब-ए-बगावत-ए-हिन्द' (द कॉज ऑफ दी इंडियन रिवोल्ट) नाम की किताब में सर सैयद अहमद खान लिखते हैं, " वो मुरादाबाद की 1858 की एक सर्द भरी रात थी. 1857 का भारतीय विद्रोह शांत हो चुका था, लेकिन बदला लेने की आग ब्रिटिश छावनियों में धधक रही थी. हर हिंदुस्तानी को शक की निगाह से देखा जा रहा था, और खासकर उन मुसलमानों को जिनकी सदियों पुरानी सल्तनत अभी-अभी धराशायी हुई थी."
ऐसे माहौल में, उप-न्यायाधीश सर सैयद अहमद खान एक बंद कमरे में बैठे थे. वह जो लिख रहे थे, वह कोई साधारण निबंध या अपील नहीं थी, बल्कि एक सियासी बम था जिसे वह सीधे उन हुक्मरानों के हाथों में सौंपने वाले थे जो आक्रोश और विजय के नशे में चूर थे. सर सैयद ने बेखौफ होकर ब्रिटिश सरकार की नीतियों को ही विद्रोह की वजह बताई. उन्होंने लिखा, "विद्रोह की ख़ास वजह सिपाही या कोई साजिश नहीं थी, बल्कि आपकी (ब्रिटिश) नीतियां थीं. आपने भारतीयों को शासन में शामिल नहीं किया, उनकी भावनाओं और रीति-रिवाजों को नज़रअंदाज़ किया."
जब सर सैयद अहमद खान ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ मुसलमानों को बेदार करने की प्लानिंग बना रहे थे, तब उनके दोस्तों ने उन्हें रोकते हुए कहा था कि आप अपनी जान खतरे में डाल रहे हैं. ब्रिटिश हुकूमत आपको फांसी दे देंगे, लेकिन सर सैयद अहमद खान ने कहा, " आज चुप रहने का मतलब है पूरी मुस्लिम कौम का विनाश करना होगा, जो 1857 के बाद सबसे ज्यादा निशाने पर थे." सर सैयद अहमद खान ने इस किताब की हजारों प्रतियां छपवाईं, इसे सीलबंद किया और सीधे वायसराय और ब्रिटिश संसद को भेज दिया. यह एक रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक था. यह साहस, और अपने वजूद के लिए लड़ा गया संघर्ष ही सर सैयद की पहचान थी.
सर सैयद अहमद खान का निधन 27 मार्च, 1898 को हुआ. उन्हें उनकी कर्मभूमि, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय परिसर में दफनाया गया. उनकी मृत्यु से पहले, 1888 में उन्हें 'नाइट कमांडर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया' (केसीएसआई) के खिताब से नवाज़ा गया था.
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