हाए क्या दौर-ए-ज़िंदगी गुज़रा..वाक़िए हो गए कहानी से, गुलज़ार देहलवी के इंतेकाल पर खास
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हाए क्या दौर-ए-ज़िंदगी गुज़रा..वाक़िए हो गए कहानी से, गुलज़ार देहलवी के इंतेकाल पर खास

मेरा मक़सद किसी शायर पर न तो तनक़ीद करना है...न ही कोई नया तनाज़ा पैदा करना है...दौरे हाज़िर में जो शायर हैं वो अच्छी शायरी कर रहे हैं...उर्दू अदब उन्हे याद रखेगा...लेकिन.......

फाइल फोटो
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सैय्यद अब्बास मेहदी रिज़वी: एक अज़ीम शायर...उसूलों और रिवायतों के ताबेदार....एक ज़हीन नक़्क़ाद....जदीद उलूम से आशना...तहज़ीबी और सक़ाफ़ती अदब की एक नुमाया अलामत थे पंडित आनंद मोहन ज़ुत्शी उर्फ़ गुलज़ार देहलवी ....गुलज़ार देहलवी ने शायरी और तनक़ीद का ऐसा गिरांक़द्र सरमाया छोड़ा है कि इसे कभी फ़रामोश नहीं किया जा सकता....उनके इंतेक़ाल से हम एक अहद से महरुम हो गए....लेकिन मलाल है कि हम उनकी क़द्र नहीं कर सके...उन्हें वो मुक़ाम नहीं मिला जिसके वो हक़दार थे...20वीं सदी के आख़िर और 21वीं सदी के आग़ाज़ में होने वाले मुशायरों और शायरों के मेयार से कौन वाक़िफ़ नहीं है....हमारे यहां मुशायरों में किसी शायर के चंद अच्छे अशार सुनकर उसे बड़ा शायर कह देने की रस्म आम है...ये नाज़िम के ऊपर है कि वो किसी भी मुशायरे में किसी शायर को दावत देने से पहले उसे कैसे पेश करे और कैसे चलते हुए मुशायरे को कामयाब बनाया जाए...यही वजह है कि उर्दू में बड़े शायरों की भरमार है और हर शायर ये चाहता भी है कि उसे बड़ा शायर कहा जाए....हालांकि अच्छा शायर होना और अच्छी शायरी करना ही कोई मामूली बात नहीं है....बड़ा शायर होना तो बड़ी बात है....मेरा मक़सद किसी शायर पर न तो तनक़ीद करना है...न ही कोई नया तनाज़ा पैदा करना है...दौरे हाज़िर में जो शायर हैं वो अच्छी शायरी कर रहे हैं...उर्दू अदब उन्हे याद रखेगा...लेकिन ये क्या कि इन शायरों को हम मीरो ग़ालिब की फ़ेहरिस्त में गिने या जोड़े शायद ये इंसाफ़ नहीं होगा।

मुशायरों में अब भी रहेगा गुलज़ार का इंतेज़ार
गुलज़ार देहलवी के बारे में भी अगर आप लोगों से दरियाफ़्त करें तो लोगों की अलग अलग राय मिलेगी...कोई गर्दन हिला कर धीरे से कहेगा कि ठीक ही अशार कहते थे...तो कोई उनका नाम सुन कर चहक उठेगा और उन्हे इमामे उर्दू कहेगा...सबकी अपनी अपनी राय है...अब किसी को इस बात पर मजबूर नहीं किया जा सकता कि आप फ़लां शायर को तस्लीम करें और फ़लां की तनक़ीद करें...लेकिन गुलज़ार देहलवी के क़द का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी के 75 साल मुशायरों के स्टेज पर गुज़ारे....जोश मलीहाबादी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे शायरों के साथ न जाने कितने मुशायरे पढ़े।

तहज़ीब गुलज़ार है
गुलज़ार देहलवी की शख़्सियत सिर्फ़ शायरी तक ही महदूद नहीं थी...उन्हे इमामे उर्दू तो कहा जाता था...लेकिन दरअस्ल वो इमाम थे भारत की हज़ारों साल पुरानी रिवायत, सक़ाफ़त और तहज़ीब के....हिंदुस्तान की मिट्टी की इसी घुली मिली ख़ुशबू के सफ़ीर बनकर उन्होने दुनियाभर का दौरा किया...मुझसे अगर हिंदुस्तान के बाहर कोई ग़ैर मुल्की पूछता कि हिंदुस्तान कैसा है तो मैं यक़ीनन गुलज़ार देहलवी तस्वीर दिखाता कि ऐसा है...मशहूर शायर शकील जमाली गुलज़ार देहलवी की ताज़ियत में एक नज़्म पेश करते हुए कहते हैं कि गुलज़ार देहलवी का इंतेक़ाल न सिर्फ़ आलमी अदब का नुक़सान है बल्कि हिंदुस्तान की मुशतरका तहज़ीब को ऐसे सुतून गिर पड़ा जिसकी भरपाई आने वाले वक़्त में मुशकिल है....शकील जमाली कहते हैं

जाने वाला चला गया,
महफिल को गुलजार बनाने वाला
चला गया,
अब तुम इसको
एक सदी का अंत कहो,
उर्दू तहज़ीब की मौत बताओ,
कम्पोज़िट कल्चर के इक मजबूत पिलर का गिरना बोलो,
पंडित बोलो,
ज्ञानी बोलो,
ध्यानी बोलो,  
गंगा जमुनी कल्चर का मेयार कहो,
मेमार कहो,
जाने वाला चला गया ।

घर के माहौल ने उर्दू से इश्क़ कराया

7 जुलाई 1926 को पैदा हुए गुलज़ार देहलवी ने बचपन में ही शायरी की शुरुआत कर दी थी..तब वो अपने वालिद के साथ दिल्ली में ही रहते थे..हालांकि गुलज़ार साहब कश्मीरी पंडित थे.... घर में शायरना माहौल था इसलिए गुलज़ार साहब पर इसका असर पड़ना लाज़िमी था....असर ऐसा हुआ कि वो जहाने उर्दू की सनद बन गए । कोविड-19 जैसी मूज़ी वबा मे मुब्तिला होने के बाद भी वो कोरोना को शिकस्त देने में कामयाब रहे...लेकिन रिपोर्ट निगेटिव आने के 5 दिन बाद हरकते क़ल्ब रुक्ने तो 12 जून को उनका इंतेक़ाल हो गया

फ़लाह-ए-आदमियत में सऊबत सह के मर जाना
यही है काम कर जाना यही है नाम कर जाना

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