UP Assembly Election Result: दक्षिणपंथी और व्यक्तिवादी राजनीति का सवर्णकाल
UP Assembly Election Result:चार राज्यों में भाजपा की शानदार जीत ने यह साफ कर दिया है कि यह दक्षिणपंथी और व्यक्तिवादी राजनीति का सबसे श्रेष्ठ काल हैं. 2014 में मोदी युग की शुरुआत के साथ राजनीति में दल और विचारधारा से ऊपर व्यक्तिवाद हावी हो गया हैं.
सियासत संभावनाओं का खेल हैं, राजनीति के नए ट्रेंड को देख यह कहना अब बीते दिनों की बात लगती है. पांच राज्यों के आज के चुनावी नतीजों ने स्पष्ट कर दिया हैं कि अब आम जनता अपने मतों को लेकर काफी सजग और समझदार हैं. उसे मालूम हैं कि उसे अपना कीमती वोट किसे देना और किसे नहीं देना हैं. इसके साथ ही चार राज्यों में भाजपा की शानदार जीत ने यह साफ कर दिया है कि यह दक्षिणपंथी और व्यक्तिवादी राजनीति का सबसे श्रेष्ठ काल हैं. 2014 में मोदी युग की शुरुआत के साथ राजनीति में दल और विचारधारा से ऊपर व्यक्तिवाद हावी हो गया हैं. इस बात को इस दावे के साथ कहा जा सकता है कि मोदी है तो मुमकिन हैं, यह महज एक राजनीतिक नारा नहीं हैं, बल्कि आज किसी भी चुनाव की में जीत की गारंटी हैं.
पांच राज्यों में हुए चुनावों में पूरे देश की नजर उत्तर प्रदेश के नतीजों पर टिकी थी. सबसे अधिक लोकसभा सदस्यों वाले इस राज्य के विधानसभा के नतीजों को आम चुनाव के परिणामों से जोड़कर देखा जाता हैं. मीडिया और चुनावी विश्लेषकों के लिहाज से इसे सेमीफाइनल भी कहा जाता रहा है.
गौण होते मुद्दे
यह जीत विपक्ष के उन सारे मुद्दों की धज्जियां उड़ाते दिख रही हैं. विकास, महंगाई, बेरोजगारी, इंफ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे इस चुनाव में हावी ही नहीं हो पाए. सारे विपक्षी दलों अपने घोषणा पत्रों में तमाम बातों का जिक्र तो किया, मगर वह जनता के दिलों में अपनी जगह नहीं बना पाए. कोविड के दौरान हुई तमाम लापरवाहियों को भी वो ढंग से मुद्दा नहीं बना पाए. इसी प्रकार लखीमपुर खीरी या उन्नाव मामले पर भी सत्तासीन दल को ढंग से घेर नहीं पाए. इसी प्रकार राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन से उपजी सहानुभूति को भी वह बटोर नहीं पाए. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता हैं कि विपक्ष मुद्दों को लेकर सत्तापक्ष को घेरने में नाकामयाब रहा. या फिर ऐसा कहा जा सकता है कि जनता को अब इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता है!
जातिगत राजनीति और धुर्वीकरण
भारतीय राजनीति में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो वह धर्म और जाति की राजनीति नहीं करता. स्वामी प्रसाद मौर्य ,दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी जिस धूम-धड़ाके के साथ सपा गठबंधन में शामिल हुए उसे देखकर मीडिया के एक वर्ग ने उनके दल-बदल की खूब चर्चा की, मगर वास्तविक चुनावी नतीजा सिफर रहा. वहीं पश्चिम उत्तर प्रदेश में जयंत चैधरी की राष्ट्रीय लोकदल, पूर्वांचल में ओमप्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल (कमेरावादी), महान दल, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनवादी पार्टी, गोंडवाना पार्टी, कांशीराम बहुजन मूल निवास पार्टी जैसी तमाम राजनीतिक दल अपने वोटरों को आकर्षित करने में नाकाम रहे. वहीं भाजपा गठबंधन ने अपने पुराने सहयोगी अनुप्रिया पटेल की अपना दल (एस) और संजय निषाद की ‘निषाद पार्टी’ से अपने गठबंधन को बरकरार रख उनके कोर वोटर को खींचने में कामयाब रही. लगभग 100 सीटों पर उतरे ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम बिहार वाला करिश्मा नई दुहरा सकी और उन्हें खाली हाथ हैदराबाद लौटना पड़ा.
दलित फैक्टर
आज के चुनावी नतीजे यह संकेत कर रहे हैं कि मायावती की पार्टी बसपा के कोर वोटर्स ने उसका साथ छोड़ दिया है. कभी दलित राजनीति की सिरमौर रही मायावती की आभा अब क्षीण हो रही हैं, जिससे दलित राजनीति में एक शून्य उभर रहा है जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिल रहा हैं. यादवों को छोड़कर बाकी अन्य ओबीसी जैसे भाजपा के साथ जुड़ चुके हैं, उसी प्रकार जाटवों को छोड़कर अन्य सभी दलित भाजपा की ओर आकर्षित हो रहे हैं. गोरखपुर सीट से लगातार पिछड़ रहे दलित राजनीति के नये पोस्टर ब्वॉय चंद्रशेखर आजाद रावण भी इस चुनाव में कोई खास फैक्टर नहीं रहे. उनका पिछड़ना यह संकेत कर रहा हैं, कि भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग कामयाब रही हैं. वह सवर्णों के साथ ओबीसी और दलित को भी साधने में सफल रही हैं.
नाराज ब्राह्मण
सभी विपक्षी राजनीतिक दलों ने उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों को सत्ताधारी दल भाजपा से नाराज करार देकर भगवान परशुराम की जयंती और मूर्ति की राजनीति लगे करने. प्रदेश में ब्राह्मण कांग्रेस, भाजपा होते बसपा का स्थायी वोटर हो गया था. मगर भाजपा पुनः उन्हें अपने पाले में खींच लाने में कामयाब रही. कुछ समय पूर्व तक चुनावी विश्लेषक यह कहते नहीं थक रहे थे कि असंतुष्ट ब्राह्मण भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता हैं, लेकिन अंत समय में उन्होंने यह चर्चा ही छोड़ दी.
अन्य प्रदेश
उत्तर प्रदेश के नतीजों पर तो पूरे देश की नजर टिकी थी, लेकिन इसके अलावा छोटे राज्य उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के राजनीतिक नतीजे यह संकेत कर रहे हैं कि भाजपा अपने चुनावों को लेकर अन्य विपक्षी दलों की अपेक्षा काफी गंभीर हैं. लगातार विजयी हो रही भाजपा के चुनावी नतीजे यह संकेत कर रहे हैं, कि यह राष्ट्रवादी राजनीति का सबसे स्वर्णिम समय हैं. अब यह देखना बाकी है कि केंद्र में मोदी और उत्तर प्रदेश में योगी समेत अन्य राज्यों के भाजपाई मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में सफलता की कौन सी नई इबारत लिखी जाएगी?
ए. निशांत
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.
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