इस्लाम में क्यों नहीं है तलाक शुदा महिला को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान; क्यों ट्रोल हो रहीं हसीन जहां ?
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इस्लाम में क्यों नहीं है तलाक शुदा महिला को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान; क्यों ट्रोल हो रहीं हसीन जहां ?

Alimony for divorced wife in Islam: भारतीय टीम के तेज गेंदबाज मोहमद शमी की बीवी हसीन जहाँ को कलकत्ता हाईकोर्ट ने राहत देते हुए हर महीने चार लाख रुपये अपने पति से गुज़ारा भत्ता लेने का आदेश दिया है. इसमें हर माह डेढ़ लाख रुपये बीवी और ढाई लाख हर महीने बेटी को देना है. कोर्ट के इस फैसले के बाद मोहम्मद शमी के समर्थक, हिन्दू और मुसलमान फैंस दोनों अलग-अलग बुनियाद पर हसीन जहाँ को ट्रोल कर रहे हैं. उनके गुज़ारा भत्ते को गलत बता रहे हैं. 

 इस्लाम में क्यों नहीं है तलाक शुदा महिला को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान; क्यों ट्रोल हो रहीं हसीन जहां ?

नई दिल्ली:  भारतीय टीम के तेज गेंदबाज मोहमद शमी की पूर्व पत्नी हसीन जहाँ को कलकत्ता हाईकोर्ट ने बड़ी राहत देते हुए उनको अपने पति से मिलने वाले गुज़ारे भत्ते की रकम को 1.3 लाख से बढ़ाकर मासिक 4 लाख रुपया कर दिया है. हसीन जहाँ इसके लिए 2018 से अदालत में लड़ाई लड़ रही थीं. इस फैसले के बाद हसीन जहाँ ने कोर्ट और अपने वकील समेत उन तमाम लोगों का शुक्रिया अदा किया है, जो इस कानूनी लड़ाई में उनके साथ थे. 

वहीँ, कोर्ट के इस फैसले के बाद क्रिकेटर शमी के प्रशंसकों ने इसपर नाखुशी का इज़हार किया है, और इसके लिए हसीन जहाँ को वह ट्रोल कर रहे हैं. ख़ास बात ये है कि ट्रोल करने वालों में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग शामिल हैं. मुसलमान इस बिना पर हसीन जहाँ को ट्रोल कर रहे हैं कि इस्लाम में तलाक़ शुदा पत्नी को अपने पूर्व पति से गुज़ारा भत्ता लेने का कोई प्रावधान नहीं है. मुसलमान ट्रोल कर रहे हैं कि शमी से लिया गया पैसा हराम है. वहीँ, हिन्दू इस बात के लिए ट्रोल कर रहे हैं कि देश के कानून की वजह से हसीन जहाँ को ये गुज़ारा भत्ते की रकम मिलेगी, वरना अगर वो शरिया कानून या मुस्लिम पर्सनल कानून पर चलती तो अभी कहीं लावारिस हाल में पड़ी होतीं. कोई पूछने वाला नहीं होता. 

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इस्लाम में क्यों नहीं है गुज़ारा भत्ते का प्रावधान 

गौरतलब है कि इस्लाम में तलाकशुदा पत्नी को गुज़ारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है. इस्लाम में शादी को एक सोशल कॉन्ट्रैक्ट माना गया है, जो दोनों पक्षों की आपसी रजामंदी तक चलती रहेगी. यहाँ शादी को जन्म- जन्मान्तर का कोई रिश्ता नहीं माना गया है. न ही मायके से डोली उठने के बाद ससुराल से अर्थी उठने का कोई कांसेप्ट है. यहाँ मियां- बीवी में क्लेश होने या रिश्ते खराब होने पर एक दूसरे से तलाक लेकर अलग होने का प्रावधान है. ये प्रावधान और हक़ मियां और बीवी दोनों के लिए है. न चल पाने वाले रिश्ते से अलग होकर दोनों अपनी- अपनी नई ज़िन्दगी की शुरुआत कर सकते हैं. 

हालांकि, इस्लाम में तलाक के बाद तीन माह यानी (तीन बार माहिला को रजोनिवृत्ति आने तक ) अपने उसी पति के घर में रहने का अधिकार है, जो उसे तलाक दे चुका है. लेकिन इस बीच वो उससे कोई शारीरिक सम्बन्ध नहीं बना सकता है. इस तीन माह की अवधि का खर्च पति को उठाने की जिम्मदारी दी गई है. इसके बाद तलाकशुदा पत्नी की कोई भी ज़िम्मेदारी उसके पूर्व पति की नहीं होती है. 

हालाँकि, बीवी से तलाक के बाद बच्चों का पालन-पोषण और उसका खर्च उठाने की जिम्मेदारी उस बच्चे के बाप पर ही लादी गई गई. यहाँ तक की बेटी की शादी की जिम्मेदारी भी उसके मूल पिता पर होगी भले ही वो अपनी माँ के साथ रहती हो. 

इस्लाम विधवा महिलाओं से विवाह कर उसे सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा देने के लिए पुरुषों को प्रेरित करता है, लेकिन तलाक शुदा पत्नियों (जो लॉजिकल तौर पर उसकी पत्नी नहीं रह गयी है) को किसी तरह का गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान नहीं करता है. 

इस मामले में मुफ़्ती अबरार कासमी कहते हैं, " तलाक के बाद जब मियां- बीवी में कोई रिश्ता ही नहीं बचा, दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी हो. एक दूसरे से आज़ाद हो गए तो फिर अजनबी आदमी उस महिला का खर्चा क्यों उठाएगा." 
 

इस मामले में मुफ़्ती डॉक्टर शमशुद्दीन अहमद नदवी कहते हैं, " इस्लाम में हर मसले और कानून के पीछे कोई न कोई लॉजिक है. अगर ऐसा प्रावधान कर दिया जाए तो एक वक़्त के बाद अधिकांश महिलाएं अपने पति से अलग होकर उसके खर्चे पर अकेला जीवन गुज़ारने लगेगी. आज देश में ऐसे केसों की भरमार है, जिसमें महिलाएं शादी सिर्फ पति से पैसे लेने और उसे ब्लैकमेल करने के लिए कर रही है. एक आदमी तलाक के बाद भी एक ऐसी महिला का खर्च उठा रहा है, जो अब उसकी पत्नी नहीं है, और जो शादी में रहते हुए उसे अपना पति स्वीकार नहीं किया." 

शमशुद्दीन अहमद नदवी चीन का हवाले देते हुए कहते हैं कि दुनिया को एक दिन इस्लाम के ही नियम को अपनाना होगा जैसे चीन ने अपना लिया है. चीन ने अपने देश में उस कानून को निरस्त कर दिया है, जिसमे तलाक के बाद पूर्व पत्नी को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान करता है. इसक कानून के तहत वहां की महिलाएं अपने पति से तलक लेकर उसके पैसे से ऐश करती हैं. इस कानून की वजह से चीन का पारिवारिक निजाम बिगड़ गया है. चालाक किस्म की महिलाएं पुरुषों का गुज़ारा भत्ता के नाम पर शोषण करती हैं. 

देश के कानून के तहत मुस्लिम महिलाएं भी ले सकती है पति से गुज़ारा भत्ता   
इस्लाम में भले ही तलाकशुद पूर्व पत्नियों को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान न हो लेकिन भारत के CRPC- 125 और भारतीय नयाय सहिंता की धारा 144 के तहत तलाक शुदा पत्नियों को गुज़ारा भत्ता देने का प्रावधान है. भारतीय कानून पूर्व पत्नियों को उस वक़्त तक पूर्व पतियों से गुज़ारा भत्ता दिलाने का प्रावधान करता है, जबतक कि महिला किसी अन्य पुरुष से शादी नहीं कर लेती है. कोई भी तलाकशुदा मुस्लिम महिला इन कानूनों का सहारा लेकर अपने पूर्व पति से गुज़ारा भत्ता क्लेम कर सकती है, और कोर्ट उसके पति को गुज़ारा भत्ता देने के लिए पाबंद कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट कई फैसलों में ये कह चुकी है कि तलाक शुदा मुस्लिम महिलाएं भी अपने पूर्व पतियों से गुज़ारा भत्ता लेने की हकदार हैं.  

गुज़ारा भत्ता के नाम पर देश में मच चुका है बवाल 

मध्य प्रदेश में 1972 में, शाह बानो नामक एक मुस्लिम महिला की शादी इंदौर के एक मशहूर वकील मोहम्मद अहमद खान से हुई थी. इस विवाह से उस दंपति के पाँच बच्चे थे. लेकिन 14 साल बाद, अहमद खान ने कम उम्र की महिला से एक और शादी कर ली. दोनों पत्नियों के साथ रहने के वर्षों के बाद, उसने शाह बानो को  ६२ साल की उम्र में तलाक दे दिया.  उसे 200 रुपये प्रति माह गुज़ारा भत्ता देने का वादा किया था, लेकिन अप्रैल 1978 में, उसने शाह बानो को उक्त पैसे देना बंद कर दिया. शाह बानो ने भरण-पोषण के रूप में 500 रुपये के लिए आपराधिक प्रक्रिया की धारा 125 के तहत मुकदमा दायर किया. पति ने तर्क दिया कि तलक के बाद वह उसकी पत्नी नहीं रही, इसलिए वह उसका भरण-पोषण करने के लिए उत्तरदायी नहीं है. अगस्त 1979 में, स्थानीय अदालत ने खान को भरण-पोषण के रूप में बानो को प्रति माह ₹25 की राशि देने का निर्देश दिया. 1 जुलाई, 1980 को बानो के एक पुनरीक्षण आवेदन पर, मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय ने भरण-पोषण की राशि बढ़ाकर ₹179.20 प्रति माह कर दी. इसके बाद खान ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के लिए एक याचिका दायर की जिसमें दावा किया गया कि शाह बानो अब उनकी ज़िम्मेदारी नहीं है, क्योंकि शाह बानो अब उनकी ज़िम्मेदारी नहीं हैं. उस वक़्त सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया था, लेकिन संसद ने कानून बनाकर कोर्ट के उस फैसले को निष्क्रिय कर दिया था, जिसे लेकर तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार की तब से लेकर आज तक आलोचना की जाती है. 

 

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