अब किसी और सलीके से सताए दुनिया जी बदलने लगा असबाब-ए-परेशानी से
अब तेरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं कितनी रग्बत थी तेरे नाम से पहले पहले
हिज्र की रात और पूरा चांद किस कदर है यह अहतिमाम गलत
सी दिए जाएं मेरे होठ तो ऐ जाने गज़ल ऐसा करना मेरी आंखों से अदा हो जाना
मुझ को पाना है तो फिर मुझ में उतर कर देखो यूँ किनारे से समुंदर नहीं देखा जाता
रुख्सती के तुझे आदाब सिखाने होंगे यार जाते हुए मुड़-मुड़के नहीं देखते हैं
एक लम्हे में बिखर जाता है ताना-बाना और फिर उम्र गुज़र जाती है यकजाई में
इब्तिदा वो थी कि जीने के लिए मरता था मैं इंतिहा ये है कि मरने की भी हसरत न रही
उस इमारत को गिरा दो जो नज़र आती है मिरे अंदर जो खंडर है उसे तामीर करो
ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना हामी भर लेना बहुत हैं फ़ाएदे इस में मगर अच्छा नहीं लगत
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