कमान-ए-शाख़ से गुल किस हदफ़ को जाते हैं, नशेब-ए-ख़ाक में जा कर मुझे ख़याल आया

Zee Salaam Web Desk
Mar 24, 2025


इस दिल को किसी दस्त-ए-अदा-संज में रखना, मुमकिन है ये मीज़ान-ए-कम-ओ-बेश जला दे


मैं दिल को उस की तग़ाफ़ुल-सरा से ले आया, और अपने ख़ाना-ए-वहशत में ज़ेर-ए-दाम रखा


उसे अजब था ग़ुरूर-ए-शगुफ़्त-ए-रुख़्सारी, बहार-ए-गुल को बहुत बे-हुनर कहा उस ने


यही बहुत थे मुझे नान ओ आब ओ शम्अ ओ गुल, सफ़र-नज़ाद था अस्बाब मुख़्तसर रक्खा


किताब-ए-उम्र से सब हर्फ़ उड़ गए मेरे, कि मुझ असीर को होना है हम-कलाम उस का


मैं चाहता हूँ मुझे मशअलों के साथ जला, कुशादा-तर है अगर ख़ेमा-ए-हवा तुझ पे


किताब-ए-ख़ाक पढ़ी ज़लज़ले की रात उस ने, शगुफ़्त-ए-गुल के ज़माने में वो यक़ीं लाया

VIEW ALL

Read Next Story