"अजीब रंग में अब के बहार गुजरी है" फैज अहमद फैज

Siraj Mahi
Aug 17, 2024

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही, नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान, भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे

न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ, इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया, तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है, अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

रात यूँ दिल में तिरी खोई हुई याद आई, जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए

हम शैख़ न लीडर न मुसाहिब न सहाफ़ी, जो ख़ुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे

अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें, रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम

जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी, जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई

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