"मां की आग़ोश में कल मौत की आग़ोश में आज" कैफ भोपाली के शेर

ज़िंदगी शायद इसी का नाम है... दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ

तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है... तेरे आगे चाँद पुराना लगता है

थोड़ा सा अक्स चाँद के पैकर में डाल दे... तू आ के जान रात के मंज़र में डाल दे

ये दाढ़ियाँ ये तिलक धारियाँ नहीं चलतीं... हमारे अहद में मक्कारियाँ नहीं चलतीं

तुझे कौन जानता था मिरी दोस्ती से पहले... तिरा हुस्न कुछ नहीं था मिरी शाइरी से पहले

इक नया ज़ख़्म मिला एक नई उम्र मिली... जब किसी शहर में कुछ यार पुराने से मिले

गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो... आँधियो तुम ने दरख़्तों को गिराया होगा

मैं ने जब पहले-पहल अपना वतन छोड़ा था... दूर तक मुझ को इक आवाज़ बुलाने आई

माँ की आग़ोश में कल मौत की आग़ोश में आज... हम को दुनिया में ये दो वक़्त सुहाने से मिले

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