"ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब" मजरूह सुल्तान पुरी के शेर

Siraj Mahi
Jun 12, 2024

जानिब
ऐसे हँस हँस के न देखा करो सब की जानिब... लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं

सँभल
जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूँ सँभल के बैठ गए... तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की

ज़िंदगी
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए... हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते

तूफ़ाँ
बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना... किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते

अजनबी
ज़बाँ हमारी न समझा यहाँ कोई 'मजरूह'... हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे

आस्ताँ
अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हम... उठने को उठ तो आए तिरे आस्ताँ से हम

पनाह
तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए... निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए

आँख
अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर... अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे

क़ाफ़िले
मजरूह' क़ाफ़िले की मिरे दास्ताँ ये है... रहबर ने मिल के लूट लिया राहज़न के साथ

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