सोए रहते हैं ओढ़ कर ख़ुद को... अब ज़रूरत नहीं रज़ाई की

Siraj Mahi
Jul 08, 2024

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम... आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे

सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओ... ये मेरा हुक्म है हालाँकि कुछ नहीं हूँ मैं

आते जाते पल ये कहते हैं हमारे कान में... कूच का ऐलान होने को है तय्यारी रखो

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो... ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को... समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूँगा उसे

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर... जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ

ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे... नींद रक्खो या न रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो

वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा... मैं उस के ताज की क़ीमत लगा के लौट आया

हम अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते हैं... मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं

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