"उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन, दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में"

Siraj Mahi
May 01, 2024


हुस्न में जब नाज़ शामिल हो गया... एक पैदा और क़ातिल हो गया


सहरा से बार बार वतन कौन जाएगा... क्यूँ ऐ जुनूँ यहीं न उठा लाऊँ घर को मैं


उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन... दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में


सारे चमन को मैं तो समझता हूँ अपना घर... जैसे चमन में मेरा कोई आशियाँ बना


वो दुनिया थी जहाँ तुम बंद करते थे ज़बाँ मेरी... ये महशर है यहाँ सुननी पड़ेगी दास्ताँ मेरी


जब दिल पे छा रही हों घटाएँ मलाल की... उस वक़्त अपने दिल की तरफ़ मुस्कुरा के देख


परेशाँ होने वालों को सुकूँ कुछ मिल भी जाता है... परेशाँ करने वालों की परेशानी नहीं जाती


रोज़ कहता हूँ कि अब उन को न देखूँगा कभी... रोज़ उस कूचे में इक काम निकल आता है


मिरी दीवानगी पर होश वाले बहस फ़रमाएँ... मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की ज़रूरत है

VIEW ALL

Read Next Story