क्या होती है शरिया अदालतें, जो सरकार और सुप्रीम कोर्ट की आँखों में हमेशा खटकती है

Tauseef Alam
Apr 29, 2025


सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला के तलाक के मामले में शरिया कोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा है कि इन अदालतों को कानूनी तौर पर कोई मान्यता नहीं है. काजी के फैसले बाध्यकारी नहीं हो सकते हैं.


मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अधिनियम, 1937 के तहत विवाह, तलाक, विरासत और संपत्ति से संबंधित विवाद को शरिया अदालतें, या दार-उल-कज़ा मध्यस्थता के तौर पर सुलझाए जाते हैं.


मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एक्ट, 1937, संविधान से पहले का है और संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित है, जो धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन धार्मिक मामलों का अभ्यास और प्रबंधन करने का अधिकार शामिल है.


ये अदालतें इस्लामिक शरीयत कानून के आधार पर फैसले सुनाती हैं. आमतौर पर काज़ी, मुफ़्ती और इस्लामिक कानून के विशेषज्ञ यहाँ शरीयत कानूनों के मुताबिक दोनों पक्षों की बातें सुनकर हल सुझाते हैं.


शरिया अदालते सिर्फ अपनी मर्ज़ी से आये लोगों के मामलों में मध्यस्तता करता है. इसके किसी फैसले से संवैधानिक सिद्धांतों या भारतीय दंड संहिता या आपराधिक प्रक्रिया संहिता जैसे कानूनों का उलंघन नहीं होना चाहिए.


शरिया अदालतों के फैसले बाध्यकारी नहीं होते हैं. ये दो के अलवा किसी तीसरे पक्ष पर भी नजीर के तौर पर लागू नहीं होगा. इसके फैसले को सामान्य कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.


हत्या, दुष्कर्म, अपहरण, लूट, डकैती, चोरी, धोखाधड़ी, मारपीट, जैसे कोई भी आपराधिक या अन्य सिविल सूट के मामले सिर्फ भारतीय न्यायपालिका ही सुलझा सकती है. शरिया कोर्ट में ऐसे मामलों की सुनवाई नहीं कर सकता है.


भारत के पटना, कोलकाता, मलप्पुरम, कोझीकोड, बेंगलुरु, मैंगलोर, चेन्नई, हैदराबाद और दिल्ली आदि शहरों में शरिया अदालतें काम करती है, लेकिन यह मुसलमानों के बीच भी बहुत ज्य्यादा लोकप्रिय नहीं है.

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