यूक्रेन और रूस के बीच आपसी रंजिश दशकों पुरानी है, लेकिन कभी भी दोनों के बीच जंग की स्थिति पैदा नहीं हुई थी. हाल के दिनों में शंक्ति संतुलन के मद्देनजर यूक्रेन अचानक रूस और अमेरिका दोनों महाशक्तियों के लिए महत्वपूर्ण हो गया था और इसलिए इन दोनों देशों के बीच न चाहते हुए भी जंग लाजिम हो गया है.
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नई दिल्लीः रूस और यूक्रेन के बीच सालों से चला आ रहा शीत युद्ध आखिरकार युद्ध में तब्दील हो गया है और अमेरिका-यूरोपीय यूनियन और नैटो इस युद्ध को रोकने में नाकाम साबित रहे. महीनों पहले रूस ने यूके्रन की सीमा पर लगभग 90 हजार सैनिक तैनात कर रखे थे, जिसे पहले से ही युद्ध की आशंका और संभावना के तौर पर देखा जा रहा था. हालांकि उम्मीद की जा रही थी कि इस संभावित युद्ध को कूटनीतिक प्रयासों से सुलझा लिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. आईये समझते हैं अखिर क्यों हो रहा दोनों देशों के बीच ये जंग ?
इतिहास के आइने में विवाद की जड़
यूक्रेन सोवियत संघ के टूटने के पहले यानी 1991 तक उसका हिस्सा था. यूक्रेन जब सोवियत संघ के 15 गणराज्यों में से एक था और सोवियत शासन के अधीन था, उस वक्त मास्को के नियंत्रण के खिलाफ सबसे शुरुआती विद्रोह में वह शामिल था. इससे पहले भी 1930 के दशक में स्टालिन की रूसीकरण परियोजना का भी यूक्रेन ने विरोध किया था. उस वक्त भी यूक्रेन ने स्टालिन पर बड़े पैमाने पर यूक्रेन के लोगों के नरसंहार के आरोप लगाए थे.
यहां बोए गए दोनों देशों के बीच दुश्मनी के बीज
लुहान्स्क और डोनेट्स्क दक्षिण-पूर्वी यूक्रेन के क्षेत्र हैं, जो प्रमुख औद्योगिक केंद्र हैं और सामूहिक रूप से डोनबास के रूप में जाने जाते हैं. यहां रूस और यूक्रेन की सीमा भी लगती है. इन दो क्षेत्रों में लगभग 40 फीसदी लोग रूसी हैं, जो डोनबास क्षेत्र में सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं. यहां के लोग रूसी भाषा बोलते हैं. उनकी संस्कृति भी रूस से मिलती जुलती है. यहां तक कि इस इलाके के लोगों का रूस से रोटी-बेटी का संबंध है. इसलिए रूस को लेकर शुरू से उनका झुकाव रहा है.
डोनबास के स्वायत्तता की मांग
रूस से यूक्रेन की स्वतंत्रता के बाद, डोनबास यूक्रेनी केंद्रीकरण के खिलाफ विद्रोह का केंद्र बन गया. कीव सरकार ने शक्तियों के हस्तांतरण और रूसी भाषा की मान्यता की मांगों की यहां अनदेखी की. हालांकि प्राकृतिक संसाधनों की प्रचूरता और व्यापारिक केंद्र होने के कारण यहां एक कुलीन वर्ग का उदय हो रहा था, जो रूस समर्थक था. विक्टर यानुकोविच, जो 2010-2014 से यूक्रेन के राष्ट्रपति थे, ने दक्षिणी और पूर्वी यूक्रेन में स्वायत्तता की मांग उठाई थी. यानुकोविच रूस के साथ घनिष्ठ आर्थिक और सैन्य संबंधों के पैरोकार बन गए. हालांकि स्वायत्तता की मांग ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
’पीपुल्स रिपब्लिक’ को रूसी मान्यता आग में घी डालने का काम
2014 में रूस ने यूक्रेन के अधीन वाले क्षेत्र क्रिमिया पर आक्रमण कर और जनमंत संग्रह के नाम पर अपने हिस्से में मिला लिया. ठीक इसी वक्त आंतरिक विद्रोह के बाद डोनबास क्षेत्र ने भी क्रिमिया से प्रेरणा लेकर 2014 में खुद को यूक्रेन से स्वतंत्र घोषित कर लिया, हालांकि यूक्रेन, मास्को और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा उसे कभी मान्यता नहीं मिली थी. हफ्ता भर पहले रूसी राष्ट्रपति वाल्दिमिर पुतिन ने यूक्रेन के डोनबास क्षेत्र के दो अलग-अलग क्षेत्रों लुहान्स्क ’पीपुल्स रिपब्लिक’ और डोनेट्स्क ’पीपुल्स रिपब्लिक’ को औपचारिक तौर पर मान्यता प्रदान की थी. इसके बाद ही रूस ने यहां अपनी 90 हजार सेनाएं खड़ी कर दी थी. पुतिन ने इन क्षेत्रों में ’शांति व्यवस्था’ स्थापित करने का हवाला दिया था.
अमेरिका-यूरोप का क्या है हित ?
यूक्रेन ब्रिटेन और अमेरिका के लिए रूस के मामले में एक बफर जोन की तरह काम करता है. ब्रिटेन से एक रक्षा करार के तहत यूक्रेन अपने दो इलाकों में नेवी बेस कायम करना चाहता है, और ये बात रूस को पसंद नहीं है. इसके अलावा ब्रिटेन और अमेरिका ने यूक्रेन को नैटो की सदस्यता देने की भी पेशकश कर रखी है. रूस को इस बात का डर है कि नैटो की सदस्यता मिलने के बाद यूक्रेन उसके प्रभाव क्षेत्र से बिल्कुल बाहर हो जाएगा और वह अमेरिका और ब्रिटेन के इशारों पर चलने लगेगा. यह स्थिति रूस के हक में ठीक नहीं होगी. यही इस जंग का तात्कालिक कारण भी है.
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