S Jaishankar: 'समझ होती तो कश्मीर को UN में नहीं ले गये होते', बिना नाम लिए नेहरू पर बरसे जयशंकर
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S Jaishankar: 'समझ होती तो कश्मीर को UN में नहीं ले गये होते', बिना नाम लिए नेहरू पर बरसे जयशंकर


Kashmir Issue To UNSC: विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बिना नाम लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू पर फिर निशाना साधा है. उन्होंने कहा कि कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले जाना एक बुनियादी गलती थी. अगर समझ होती तो ऐसा नहीं किया जाता. अपने भू-राजनीतिक एजेंडे और कश्मीर में असुरक्षा के मुद्दे का इस्तेमाल करने वाले देशों के एक समूह ने भारत को धोखा दिया था.

S Jaishankar: 'समझ होती तो कश्मीर को UN में नहीं ले गये होते', बिना नाम लिए नेहरू पर बरसे जयशंकर

Jaishankar lashed out at Nehru: 'आज यह बहुत स्पष्ट है कि कश्मीर मुद्दे (Kashmir Issue) को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में ले जाना एक बुनियादी गलती (Fundamental Error) थी.' पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम लिए बिना उन पर निशाना साधते हुए विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि अगर समझ होती तो कश्मीर को यूएन में नहीं ले गए होते. जयशकंर ने कहा कि हमें उन देशों के एक समूह ने धोखा दिया था, जिन्होंने अपने भू-राजनीतिक एजेंडे (Geo-Political Agenda) और कश्मीर में असुरक्षा के मुद्दे का इस्तेमाल किया. उन्होंने कहा कि यह तथ्य आज नहीं बल्कि 1970 के दशक तक बहुत स्पष्ट हो गया था.

'मोदी सरकार में हम अपने इतिहास को फिर से हासिल कर रहे हैं'

कर्नाटक में पीईएस विश्वविद्यालय में स्वर्ण जयंती समारोह को संबोधित करने के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बेंगलुरु दक्षिण से सांसद तेजस्वी सूर्या के साथ अपनी किताब 'व्हाई भारत मैटर्स' और कश्मीर मुद्दे पर बातचीत की. इस दौरान उन्होंने कहा कि हम अपने इतिहास को फिर से हासिल कर रहे हैं. जयशंकर ने केंद्र की मोदी सरकार से पहले और बाद की विदेश नीति के अंतर पर बात करते हुए कश्मीर मुद्दे को यूएनएससी में ले जाने को बुनियादी गलती करार दिया. 

कश्मीर मुद्दे के संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचने से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य क्या हैं

इससे पहले संसद में गृहमंत्री अमित शाह और अपने एक लेख में पूर्व कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने भी इसे नेहरूवियन ब्लंडर करार दिया था. आइए, जानते हैं कि कश्मीर मुद्दे के संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचने से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य क्या हैं? इस ऐतिहासिक मामले का सच क्या है और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू देश के आंतरिक मसले को क्यों संयुक्त राष्ट्र में ले गए. साथ ही कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच तत्कालीन परिस्थिति कैसी थी?

ऐसे बना और भारत में मिला था जम्मू कश्मीर रियासत

पहले एंग्लो-सिख युद्ध के बाद अमृतसर की संधि के तहत मार्च 1846 में अंग्रेजों ने 75 लाख नानकशाही रुपये में जम्मू के डोगरा जागीरदार गुलाब सिंह के हाथों कश्मीर को बेच दिया था. जम्मू और कश्मीर दोनों मिलने से जम्मू-कश्मीर रियासत अस्तित्व में आई थी. आजादी से पहले जून 1947 में वायसराय लुईस माउंटबेटन ने श्रीनगर में हरि सिंह के प्रधानमंत्री को भारत या पाकिस्तान में  शामिल होने की सलाह दी थी. इसके जवाब में महाराजा गुलाब सिंह के वंशज हरि सिंह ने भारत या पश्चिमी पाकिस्तान में मिलने के बजाय स्वतंत्र रहकर  'पूरब के स्विट्जरलैंड' की तरह जम्मू कश्मीर के विकास करने की बता कही थी.

'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन' के बाद भारतीय सैनिक पहुंचे

ब्रिटिश लेखिका विक्टोरिया स्कोफील्ड की किताब ‘कश्मीर इन कॉन्फ्लिक्ट’ के मुताबिक  उन्होंने 15 अगस्त, 1947 के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ ‘स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट’ का प्रस्ताव रखा था. हालांकि बाद में पाकिस्तानी साजिश, धोखे और कबाइलियों के हमले के बाद हरि सिंह ने भारत में विलय कर सैनिक मदद मांगी. भारत के शीर्ष राजनयिक वीपी मेनन को 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन' यानी विलय पत्र सौंपा. एजी नूरानी की किताब 'द कश्मीर डिस्प्यूट' में  माउंटबेटन को लिखे महाराजा हरि सिंह के विलय पत्र का पूरा मजमून है. इसके बाद रक्षा समिति की बैठक में गवर्नर-जनरल माउंटबेटन की सलाह पर पंडित नेहरू ने भारतीय सेना को भेजा, जिसने कबाइली हमलावरों को कश्मीर घाटी से खदेड़कर बाहर किया.

नेहरू को माउंटबेटन ने दी थी सलाह और क्लेमेंट एटली ने चेतावनी

माउंटबेटन और हरि सिंह के पत्र व्यवहार और पंडित नेहरू और लियाकत अली खान के टेलीग्राम में कश्मीर के विलय को लेकर उचित समय पर जनमत संग्रह करवाने का जिक्र भी सामने आया. इस बीच भारतीय सैनिकों ने द्रास, कारगिल और पुंछ की पहाड़ियों पर कब्जा करके सफलता हासिल कर ली थी. लड़ाई थमी नहीं थी और इसके पंजाब तक फैलने की आशंका भी थी. तब माउंटबेटन ने कश्मीर मामले में संयुक्त राष्ट्र को शामिल करने की सलाह दी.

नवंबर, 1947 में माउंटबेटन ने लाहौर जाकर जिन्ना से मुलाकात की थी. माउंटबेटन को उम्मीद नहीं थी कि भारत और पाकिस्तान बातचीत के जरिए किसी समाधान पर पहुंच पाएंगे.  दूसरी ओर ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने पाकिस्तान में सेना भेजने को लेकर पंडित नेहरू को पत्र लिखकर चेतावनी दी. इसके बाद 1 जनवरी, 1948 को भारत ने कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का फैसला किया. कई इतिहासकार साफ तौर पर इसे अंग्रेजों के धोखे के रूप में देखते हैं. 

संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मसले को पाकिस्तान ने दिया मजहबी रंग

संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मामले में भारत ने दलील दी थी कि भारत में कानूनी रूप से शामिल जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों पर पाकिस्तानी घुसपैठिए जबरन कब्जा कर रहे थे. उन्हें छोड़ने के लिए कहा जाना चाहिए. पाकिस्तान ने इस मुद्दे को मजहबी रंग देते हुए विभाजन के बाद पैदा दिक्कतों का हिस्सा बताया. पाकिस्तान ने कहा कि घुसपैठिए अपने “पीड़ित” मुस्लिम भाइयों की मदद करने के लिए कश्मीर में घुसे थे. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने जनवरी-फरवरी 1948 के संयुक्त राष्ट्र सत्र के बारे में लिखा, “ जब सुरक्षा परिषद ने एजेंडा आइटम को ‘जम्मू और कश्मीर प्रश्न’ से बदलकर ‘भारत-पाकिस्तान प्रश्न’ कर दिया. तब भारत को एक महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक हार का सामना करना पड़ा ”

कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र ले जाने पर पंडित नेहरू को पछतावा 

संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के दावों को अमेरिका और इंग्लैंड द्वारा मजबूती दी गई थी. क्योंकि सोवियत संघ के खिलाफ भारत की तुलना में पाकिस्तान उन्हें एक बेहतर सहयोगी लग रहा था. इसलिए जम्मू कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने के फैसले को लेकर पंडित नेहरू को भी बाद में पछतावा हुआ. पाकिस्तान और अमेरिका की करीबी और दोनों के बीच एक सैन्य समझौते को देखकर 1954 के बाद पंडित नेहरू का रुख जनमत संग्रह के खिलाफ हो गया. 

हालांकि, इससे पहले ही संविधान निर्माण की प्रक्रिया के तहत 17 अक्टूबर, 1949 को अनुच्छेद 370 को संविधान में शामिल किया गया. जो संविधान के साथ 1950 में लागू हुआ. इसके तहत ही जम्मू-कश्मीर को भारत संघ में ‘विशेष दर्जा’ दिया गया था. 1954 में समझौते में एक और अनुच्छेद 35 ए जोड़ा गया. इसके बारे में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि यह घिसते-घिसते खत्म हो जाएगा. पीएम मोदी के दूसरे कार्यकाल में पांच अगस्त, 2019 को इसे खत्म कर दिया गया. 

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