बिहार में कोहड़ा को बड़ा सम्मान से देखा जाता है. गांवों में लोग अक्सर अपने घर के अंदर मचान बनाते हैं और उसमें कोहड़ा रोपते हैं. कोहड़ा को अक्सर सब्जियों के लिए ही उपजाता है, लेकिन इसके और भी कई उपयोग होते हैं. बहुत सारे घरों की छत पर या छप्पर पर पेड़ की टहनी पर आपको कोहड़ा देखने को मिल सकता है.
बिहार में बहुत सारे घरों में महिलाएं कोहड़ा काटने में संलग्न नही होती. उन्हें इस काम में पुरुष सदस्य की मदद लेनी पड़ती है. सबसे पहले पुरुष कोहड़ा को काटते हैं या उसे दो फाड़/टुकड़ा करते हैं, फिर महिलाएं उसे सब्जी के लिए काटती हैं. इसका कारण है कि बहुत से स्थानों पर लोगों की मान्यता है कि महिलाएं कोहड़ा को अपने बड़े बेटे जैसा समझती हैं और उन्हें इसे काटने से बचाती हैं.
हिंदू समुदाय में कोहड़ा का पौराणिक महत्व है. कई धार्मिक अनुष्ठानों में जहां पशु बलि नहीं दी जाती है, वहां कोहड़ा को पशु के प्रतीक रूप माना जाता है और उसे बलि दी जाती है. लोगों के बीच एक लोक मान्यता भी है कि कोहड़ा को ज्येष्ठ पुत्र माना जाता है. बिहार समेत कई राज्यों में आदिवासी समुदाय की महिलाएं तो इसे काटने के बारे में सोचती ही नहीं हैं.
यहां की महिलाएं मान्यता के अनुसार सोचती हैं कि उनका कोहड़ा काटना उनके बड़े बेटे की बलि देने जैसा हो सकता है. इसलिए वे किसी पुरुष से पहले कोहड़ा के दो टुकड़े करवाती हैं और फिर उसे सब्जी के लिए बड़े टुकड़ों में काटती हैं.
विशेषज्ञों के अनुसार, कोहड़ा और नारियल कुछ ऐसे फल हैं जो सनातन धर्म की सात्विक पूजा में बलि का प्रतिरूप होते हैं. सनातन परंपरा में, स्त्री सृजनकर्ता होती हैं, न कि संहारकर्ता. वह जन्म देती है, जन्मदात्री होती है और जो मां है, वह प्रतीकात्मक रूप से भी बलि नहीं देती.
देश के कई हिस्सों में यह परंपरा है कि कोहड़ा को कभी भी अकेला नहीं काटा जाता. अक्सर या तो दो कोहड़ा को साथ काटा जाता है या फिर एक कोहड़ा ही काटना पड़े तो इसकी जोड़ी बनाने के अन्य सब्जी को साथ रखा जाता है. कई घरों में कोहड़ा के साथ एक नींबू, मिर्च या आलू का इस्तेमाल किया जाता है.