कुछ तो मजबूरियां रही होंगी..., दिल को छू जाती हैं बशीर बद्र की ये शायरियां

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता

ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों

मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला

यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे

मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जाएगा

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में

कभी कभी तो छलक पड़ती हैं यूँही आँखें उदास होने का कोई सबब नहीं होता

घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

ख़ुदा ऐसे एहसास का नाम है रहे सामने और दिखाई न दे

इसी शहर में कई साल से मिरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं मुझे उन का कोई पता नहीं

अजीब शख़्स है नाराज़ हो के हँसता है मैं चाहता हूँ ख़फ़ा हो तो वो ख़फ़ा ही लगे

आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा

जी बहुत चाहता है सच बोलें क्या करें हौसला नहीं होता

आशिक़ी में बहुत ज़रूरी है बेवफ़ाई कभी कभी करना

उस की आँखों को ग़ौर से देखो मंदिरों में चराग़ जलते हैं

मुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिए कभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैं

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