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ओह! दालमंडी से निकली 'हीरामंडी', तवायफों का चलता था सिक्का, अंग्रेज भी इनके आगे थर-थर कांपते थे

Heeramandi Real Story: संजय लीला भंसाली की हीरामंडी तो देख ली होगी. अब इस जैसी असली कहानी भी जान लीजिए. वो दालमंडी की जहां तवायफों का सिक्का चलता था. इनके आगे तो अंग्रेज भी थर-थर कांपते थे. चलिए बताते हैं कैसे दालमंडी की बसावट हुई.

बनारस का 'हीरामंडी बाजार'

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बनारस का 'हीरामंडी बाजार'

हीरामंडी. संजय लीला भंसाली का डिजिटिल डेब्यू. जो इस वक्त हर तरफ चर्चा में हैं. डायरेक्शन से लेकर इसके गाने और कास्ट, सबकुछ दर्शक खूब पसंद कर रहे हैं. भंसाली ने लाहौर के 'हीरामंडी' पर इस सीरीज को रचा है. जिसे बनाने में उन्होंने सालों लगाए. लेकिन 'हीरामंडी' की असल कहानी से आपको रूबरू करवाते हैं. देश का वो 'हीरामंडी' बाजार, जहां से कई फनकार निकलीं. जिन्होंने देश में ही नहीं दुनियाभर में नाम कमाया. ऐसे कोठे जहां देह का नहीं बल्कि संगीत का व्यापार चलता था. चलिए बनारस की असली 'हीरामंडी' में ले चलते हैं.

हीरामंडी की कहानी

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हीरामंडी की कहानी

अगर 'हीरामंडी' नहीं देखी है तो पहले संक्षेप में कहानी समझ लीजिए. भंसाली ने 8 एपिसोड में आजादी से पहले की कहानी को दिखाया है. जहां तवायफों का बाजार था 'हीरामंडी' नाम से. यहां मल्लिका जान (मनीषा कोइराला) नाम की तवायफ का सिक्का चलता है. इनकी दो बेटियां हैं बेबोजान (अदिति रॉय हैदरी) और आलमजेब (शर्मिन सहगल). जहां बेबोजान छिप-छिपकर कोठे के पैसों से देश की आजादी में मदद करती हैं तो आलमजेब मां और बाकी तवायफों से जरा अलग है. वह इस परंपरा को फॉलो नहीं करना चाहती. न ही वह कोठे पर नाचना चाहती है न ही इस पॉलिटिक्स में पड़ना. वह तो शायराना है. उसे तो ताज से मोहब्बत है. शादी का सपना है. मगर दिक्कत ये है कि तवायफ से भला किसी इज्जतदार इंसान की शादी कैसे हो. अब इन सारे बिंदुओं को लेकर प्यारे से संगीत, भारी-भरकम म्यूजिक और खूबसूरती के साथ भंसाली ने कहानी को पिरोया है.

 

असली हीरामंडी

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असली हीरामंडी

अब आते हैं असली 'हीरामंडी' पर. इसका नाम है दालमंडी. नाम से आपको लग रहा होगा यहां दाल का बाजार होगा तो आप थोड़ा सही और थोड़ा गलत है. ये दालमंडी तो कोठों की वजह से मशहूर थी. बनारस के दालमंडी की बसावट मुगलों से भी पहले हो गई थी. कभी यहां दाल का मशहूर बाजार हुआ करता था. फिर आगे चलकर संगीत घरानों की वजह से भी ये मशहूर होने लगा. कहते हैं कि अमीर कारोबारी यहां दाल का व्यापार करते थे और रात को थक हारकर संगीत-नाच का सहारा लेते थे. ऐसे करते करते यहां मनोरंजन के साधन भी बसने लगे.

देह का सौदा नहीं होता था

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देह का सौदा नहीं होता था

धीरे-धीरे दालमंडी थोड़ा आगे शिफ्ट हो गई तो दालमंडी पूरी तरह से संगीत से रंग गया. कहते हैं जब अंग्रेज आए तो उन्होंने ही दालमंडी में तवायफों को बसाया. धीरे-धीरे यहां कोठे बनने लगे. कहते हैं कि यहां देह का व्यापार नहीं बल्कि फनकार का राज हुआ करता था. जितने रईस आते थे वह संगीत में रुचि रखते थे. मुजरा होता था तो ठुमरी और गजलों से शाम भी सजा करती थीं.

तवायफों का जादू

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तवायफों का जादू

कहते हैं कि दालमंडी की तवायफों को काफी सम्मान दिया जाता था.उनका जलवा इस कदर था कि बड़े बड़े रईस, नवाब और अंग्रेज इनके प्यार में गिरफ्त थे. ये खुद की बग्घी या डोली से निकलती थी. कुछ तवायफों का जादू तो ऐसा था कि इनके प्यार में ब्राह्मण मुस्लिम बनने को तैयार हो गए थे.

मल्लिकाजान की तरह इन हस्तियों का चलता था सिक्का

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मल्लिकाजान की तरह इन हस्तियों का चलता था सिक्का

दालमंडी वही जगह है जहां से नरगिस दत्त की मां जद्दनबाई, छप्पनछुरी उर्फ जानकीबाई, गौहरजान, तौकीबाई, हुस्नाबाई से लेकर रसूलनबाई जैसे मशहूर नाम निकले. इन हस्तियों ने साबित कर दिया था कि ये सिर्फ तवायफें नहीं बल्कि इनमें टैलेंट भी कूट-कूटकर भरा है. जद्दनबाई तो हिंदी सिनेमा तक पहुंचीं. देश की पहली महिला संगीतकार भी बनीं. उन्होंने कई फिल्में लिखीं तो डायरेक्ट भी की.

दालमंडी की तवायफों ने लिया आजादी की लड़ाई में हिस्सा

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दालमंडी की तवायफों ने लिया आजादी की लड़ाई में हिस्सा

जैसा 'हीरामंडी' में दिखाया गया है कि कैसे मल्लिकाजान की बेटी बेबोजान (अदिति रॉय हैदरी) छुप-छुपकर स्वंतत्रता सेनानियों की मदद करती थीं. वह खुद के मुजरों से आए पैसों को देश की मदद में लगाया करती थीं. इतना ही नहीं, जो अंग्रेज कोठे पर आते थे, उनसे खुफिया राज उगलवाकर स्वंतत्रता सेनानियों को बताया करती थीं. इसी तरह दालमंडी में भी कई तवायफें ऐसी हुईं जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए अहम योगदान दिया. 

दालमंडी की बेबोजान

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दालमंडी की बेबोजान

धनेसरीबाई नाम की एक तवायफ थीं जिनसे अंग्रेज थर-थर कांपते थे. उनकी इतनी हिम्मत नहीं होती थीं कि वह उनके कोठे में घुस सके. यहां संगीत, मनोरंजन के साथ साथ देशभक्ति के रंग भी हुआ करते थे. कुछ तो यहां बैठकर अंग्रेजों को धूल चटाने की रणनीति भी बनाया करते थे.

 

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