तेरे आने की क्या उमीद मगर कैसे कह दूँ कि इंतिज़ार नहीं
किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी ये हुस्न ओ इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर
ये माना ज़िंदगी है चार दिन की बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा’लूम जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
हम से क्या हो सका मोहब्बत में ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की
ग़रज़ के काट दिए ज़िंदगी के दिन ऐ दोस्त वो तेरी याद में हों या तुझे भुलाने में
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
मैं मुद्दतों जिया हूं किसी दोस्त के बग़ैर अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो ख़ैर
ज़रा विसाल के बाद आइना तो देख ऐ दोस्त तिरे जमाल की दोशीज़गी निखर आई