रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’ कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था

दिल वो नगर नहीं कि फिर आबाद हो सके पछताओगे सुनो हो, ये बस्ती उजाड़कर

कहते तो हो यूँ कहते, यूँ कहते जो वोह आता सब कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता

एक महरूम चले 'मीर' हमीं आलम से वर्ना आलम को ज़माने ने दिया क्या-क्या कुछ?

हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर ! उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था

रख हाथ दिल पर मीर के दरियाफ़्त कर लिया हाल है रहता है अक्सर यह जवाँ, कुछ इन दिनों बेताब है

चमन का नाम सुना था वले न देखा हाय जहाँ में हमने क़फ़स ही में ज़िन्दगानी की

अपने तो होंठ भी न हिले उसके रू-ब-रू रंजिश की वजह 'मीर' वो क्या बात हो गई?

कैसे हैं वे कि जीते हैं सदसाल हम तो 'मीर' इस चार दिन की ज़ीस्त में बेज़ार हो गए

तुमने जो अपने दिल से भुलाया हमें तो क्या अपने तईं तो दिल से हमारे भुलाइये