'जीवन की ढलने लगी सांझ', अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं
Advertisement
trendingNow,recommendedStories0/zeesalaam/zeesalaam2027091

'जीवन की ढलने लगी सांझ', अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं

Atal Bihari Vajpayee Poetry: पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में एक थे, और 1968 से 1973 तक उसके अध्यक्ष भी रहे. उन्होंने राष्‍ट्रधर्म, पाञ्चजन्य (पत्र) और वीर अर्जुन जैसी पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया.

'जीवन की ढलने लगी सांझ', अटल बिहारी वाजपेयी की कविताएं

Atal Bihari Vajpayee Poetry: पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आज यौम-ए-पैदाइश है. वह तीन बार भारत के प्रधानमन्त्री रह चुके हैं. सबसे पहले वह 16 मई से 1 जून 1996 तक. दोबारा 1998 में और तीसरी बार 19 मार्च 1999 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे. वे हिन्दी कवि, पत्रकार व एक प्रखर वक्ता थे. वह 25 दिसंबर 1924 को पैदा हुए थे. उनका निधन 16 अगस्त 2018 को हुआ था.

एक बरस बीत गया
 
झुलासाता जेठ मास
शरद चाँदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
 
सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
 
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
---

जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।

बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।

सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
---

हरी हरी दूब पर
ओस की बूंदे
अभी थी,
अभी नहीं हैं
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थी,
कहीं नहीं हैं

क्काँयर की कोख से
फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बुँदों को ढूंढूँ?

सूर्य एक सत्य है
जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ?
कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ?

सूर्य तो फिर भी उगेगा,
धूप तो फिर भी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद
हर मौसम में नहीं मिलेगी

Trending news