इन लोगों को 'जकात' देने से नहीं होगी अदा; पहले कर लें छानबीन
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इन लोगों को 'जकात' देने से नहीं होगी अदा; पहले कर लें छानबीन

Zakat: जकात हर मुस्लिम साहिबे निसाब पर फर्ज है. जकात तभी अदा होगी जब यह इसके हकदार को दी जाए. इस खबर में हम बता रहे हैं कि किन लोगों को जकात देना दुरुस्त है.

इन लोगों को 'जकात' देने से नहीं होगी अदा; पहले कर लें छानबीन

Zakat: जिसके पास साढ़े बावन तोला चांदी या साढ़े सात तोला सोना, या इतनी ही कीमत का व्यापार का माल हो, उसको शरिअत में मालदार कहते हैं. ऐसे शख्स को जकात का पैसा देना दुरुस्त नहीं और उसके जकात का पैसा लेना और खाना हलाल नहीं. इसी तरह जिसके पास इतनी ही कीमत का कोई माल हो, जो व्यापार का माल तो नहीं, लेकिन जरूरत से ज्यादा है, वह भी मालदार है. ऐसे शख्स को भी जकात का पैसा देना दुरुस्त नहीं, चाहे खुद इस किस्म के मालदार पर जकात वाजिब न हो. 

और जिसके पास उतना माल नहीं, बल्कि थोड़ा माल है या कुछ भी नहीं यानी एक दिन के गुजारे के लिए भी नहीं, उसको गरीब कहते हैं. ऐसे लोगों को जकात का पैसा देना दुरूस्त है और इन लोगों को लेना भी दुरुस्त है.

बड़ी-बड़ी देगें और बड़े-बड़े बुर्श-फरूश और शामियाने, जिनकी सालों में एक-आध बार कहीं शादी-ब्याह में जरूरत पड़ती है और रोज-रोज उनकी जरूरत नहीं पड़ती, वे जरूरी सामानों में दाखिल नहीं.

रहने का घर और पहनने के कपड़े और काम-काज के लिए नौकर चाकर और घर की गिरहस्ती, जो अक्सर काम में रहती है, ये सब जरूरी समानों में दाखिल हैं. इनके होने से मालदार नहीं होंगे, चाहे जितनी कीमत हो, इसलिए इसको जकात का पैसा देना दुरुस्त है. इसी तरह पढ़े हुए आदमी के पास उसकी समझ और बर्ताव की किताबें भी जरूरी सामान में दाखिल हैं. 

किसी के पास दस पांच मकान हैं, जिनको किराये पर चलाते हैं और इसकी आमदनी से गुजर करते हैं या एक आध उसके हैं, जिसकी आमदनी आती है, लेकिन बाल-बच्चे और घर में खाने पीने वाले इतने ज्यादा हैं कि अच्छी तरह बसर नहीं होती और तंगी रहती है और उसके पास कोई ऐसा माल भी नहीं, जिस पर जकात वाजिब हो, तो ऐसे सख्स को भी जकात का पैसा देना दुरुस्त है.

एक शख्स अपने घर का बड़ा मालदार है, लेकिन सफर में ऐसा हुआ कि उसके पास कुछ खर्च नहीं रहा, सारा माल चोरी हो गया या और कोई वजह ऐसी हुई कि अब घर तक पहुंचने का भी खर्च नहीं रहा, ऐसे शख्स को भी जकात का पैसा देना दुरुस्त है. ऐसे ही अगर हाजी के पास रास्ते का खर्च चुक गया और उसके घर में बहुत माल वा दौलत है, उसको भी देना दुरुस्त है.

जकात का पैसा किसी काफिर को देना दुरुस्त नहीं. मुसलमान ही को दे और जकात और उश्र और सदका-ए-फित्रर और कफ्फारे के सिवा और खैर-खैरात काफिर को भी देना दुरुस्त है. 

जकात के पैसे से मस्जिद बनवाना या किसी लावारिस मुर्दे का कफन दफन कर देना, मर्दे की तरफ से उसका कर्ज अदा कर देना या किसी और नेक काम में लगा देना दुरुस्त नहीं. जब तक किसी हकदार को न दिया जाए जकात अदा न होगी.

अपनी जकात का पैसा अपने मां-बाप, दादी-दादा, नाना-नानी, परदादा वगैरह, जिन लोगों से यह पैदा हुई है, उनको देना दुरुस्त नहीं है. इसी तरह अपनी औलाद और पोते-पड़पोते, नाती वगैरह, जो लोग उसकी औलाद में दाखिल हैं, उनको भी देना दुरूस्त नहीं. ऐसे ही बीवी अपने मियां को और मियां अपनी बीवी को जकात नहीं दे सकते. 

उन रिश्तेदारों के अलावा और सबको जकात देना दुरुस्त है, जैसे बहन-भाई, भतीजी, भांजी, चाचा, फूफी, खाला, मामूं, सौतेली मां, सौतेला बाप, दादा, सास, ससुर, वगैरह सबको देना दुरुस्त है. 

नाबालिग लड़के का बाप अगर मालदार हो, तो उसको जकात देना दुरूस्त नहीं और अगर लड़का या लड़के बालिग हो गए और खुद वह मालदार नहीं, लेकिन मां मालदार है, तो उसके देना दुरुस्त है. 

अगर छोटे बच्चे का बाप मालदार नहीं, लेकिन मां मालदार है, उस बच्चे को जकात का पैसा देना दुरुस्त है. 

घर के नौकर चाकर, खिदमतगार, मामा, दाई, खिलाई वगैरह को भी जकात का पैसा देना दुरुस्त है, लेकिन उनकी तंख्वाह में हिसाब न करे, बल्कि तंख्वाह से ज्यादा इनआम-इकराम के तौर पर दे दें और दिल में जकात देने की नीयत रखे, तो दुरुस्त है. 

जिस लड़के को तुमने दूध पिलाया है, उसको और जिसने तुम को बचपन में दूध पिलाया है, उसको जकात का पैसा देना दुरुस्त है. 

एक औरत का मह्र हजर रुपये है, लेकिन उसका शौहर बहुत गरीब है, अदा नहीं कर सकता, तो ऐसी औरत को भी जकात का पैसा देना दुरुस्त है. और अगर उसका शौहर अमीर है, लेकिन मह्र देता नहीं या उसने अपना मह्र माफ कर दिया तो भी जकात का पैसा देना दुरुस्त है. और अगर उम्मीद है कि जब मांगूंगी, तो वह अदा कर देगा, कुछ देर न करेगा तो ऐसी औरत को जकात का पैसा देना दुरुस्त नहीं. 

एक शख्स को हकदार समझकर जकात दे दी फिर मालूम हुआ कि वह मालदार है या सय्यद है या अंधेरी रात में किसी को दे दिया, फिर मालूम हुआ कि वह तो मेरी मां थी, या मेरी लड़की थी या और कोई ऐसा रिश्तेदार है, जिसको जकात देना दुरुस्त नहीं. लेकिन लेने वालों में जकात अदा हो गई, दोबारा अदा करना वाजिब नहीं. लेकिन लेने वालों को अगर मालूम हो जाए कि यह जकात का पैसा है और मैं जकात लेने का हकदार नहीं हूं, तो न ले और वापिस कर दे. और अगर देने के बाद मालूम हो कि जिसको दिया है, वह काफिर है, तो जकात अदा नहीं हुई, फिर अदा करे. 

अगर किसी पर शुबहा हो कि मालूम नहीं कि मालदार है या मुहताज है तो जब तक छान-बीन न हो जाए, उसको जकात न दे. अगर बे छान बीन किए दे दिया, तो दिल ज्यादा किधर जाता है. अगर दिल ये गवाही देता है कि वह फकीर हो तो जकात अदा हो गई, और अगर दिल में यह कहे कि वह मालदार है, तो जकात अदा नहीं हुई, फिर से दे, लेकिन अगर देने के बाद मालूम हो जाए कि वह गरीब है तो फिर से न दे, जकात अदा हो गई. 

एक शहर की जकात दूसरे शहर में भेजना मकरूह है, हां अगर दूसरे शहर में उसके रिश्तेदार रहते हैं, उनको भेज दिया या यहां वालों के हिसाब से वहां के लोग ज्यादा मोहताज हैं, या वो दीन  के काम में लगे हैं, उनको भेज दिया, तो मकरूह नहीं कि दीन का इल्म सीखने वालों और दीनदार आलिमों को देना बड़ा सवाब है.

जकात देने में और जकात के अलावा और सदका खैरात में, सबसे ज्यादा अपने रिश्ते-नाते के लोगों का ख्याल रखो कि पहले इन्हीं लोगों को दो, लेकिन इनसे बताओ कि यह सदका और खैरात की चीज है ताकि वह बुरा न मानें. हदीस शरिफ में आया है कि रिश्तेदारों को खैरात देने से दोहरा सवाब मिलता है. एक तो खैरात का दूसरे अपने अजीजों के साथ सुलूक व एहसान करने का. फिर जो कुछ इनसे बचे, वह और लोगों को दो. 

नोट: यह जानकारी मौलाना अशरफ अली थानवी की किताब 'बहिश्ती जेवर' से ली गई है. इसमें किसी भी दावे की हम तस्दीक नहीं करते हैं.

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